Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 48
________________ संवेग के मूल रहस्य की जैन दृष्टि : 39 लोभ तत्त्व राग का एक रूप लोभ कहलाता है। लोभ को भी मूल संवेग का स्थान दिया गया है। क्योंकि यह लोभवेग अन्य वेगोत्पत्ति में मुख्य भूमिका अदा करता है। लोभ को सभी अनर्थों की खान कहा गया है। लोभपूर्ति के लिए माया वेग का सहारा, लोभ प्रदर्शन के लिए मान वेग पैदा होता है तथा लोभपूर्ति में बाधा क्रोध को जन्म देती है। इस तरह लोभवश व्यक्ति नाना प्रकार के शारीरिक, मानसिक, वाचिक तथा भावात्मक संवेगों का शिकार हो जाता है। उसका आचरण, व्यवहार प्रभावित होता है। लोभ का आवेश जब तीव्रतम होता है तो मानवीय मूल्यों की भी कीमत चुकानी पड़ती है। जानलेवा हिंसक संवेगों का प्रादुर्भाव हो जाता है। लोभ की तीव्रता संवेगों की त्वरा और तीव्रता में कारण बनती है। लोभ ही व्यक्ति में यह मेरा है, यह ममत्व बुद्धि जगाता है। परिग्रह की चेतना पैदा करता है। उससे आसक्ति, मूर्छा, गृद्ध परिणाम आदि भावों का निर्माण होता है।३१ कहा भी गया है- राग, लोभ और मोह जब मन में उत्पन्न होते हैं तब इस आत्मा में बाह्य परिग्रह ग्रहण करने की बुद्धि होती है।३२ कर्मशास्त्रीय दृष्टि से सभी जीवन के केन्द्र में लोभ है।३३ लोभ प्राणिमात्र में पाया जाता है। इसी से स्वामित्व और अधिकार के वेग पैदा होते हैं। साधना के क्षेत्र में भी लोभ को जीतना दुष्कर बताया है क्योंकि बहुत साधना करने के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहता है। मोह की इस प्रवृत्ति की समाप्ति साधना की चरम स्थिति में होती है। लोभ तत्त्व की निरकुंशता विश्व मानव में क्रूरता का भाव उभारती है। स्वार्थ पैदा करती है। अपराध चेतना का भी निर्माण करती है। इसका संवेग इतना तीव्र होता है कि व्यक्ति अंधे जैसा हो जाता है। उसकी विवेक चेतना प्रायः लुप्त हो जाती है। वह स्वपर का अपूरणीय नुकसान कर सकता है।" लोभ बढ़ता है तो सारे अपराध बढ़ जाते हैं। लोभ सब अपराधों का मूल है। भावात्मक बीमारियों का कारण भी लोभ बनता है। आयुर्वेद में लोभ के दो परिणाम बताए हैंजितना लोभ बढ़ेगा उतना-उतना पाचन तंत्र खराब होता चला जाएगा। लोभ का दूसरा परिणाम है- हृदय की दुर्बलता। इस बात पर ध्यान दें जब लोभ बढ़ेगा तब पाचनतंत्र बिगड़ेगा। पाचनतंत्र बिगड़ने से मस्तिष्क का तंत्र प्रभावित होगा। परिणामतः आदमी अपराधी बन जायेगा। लोभ से हिंसा तथा आक्रामकता को बढ़ाने वाले रसायन बनते हैं। व्यक्ति नकारात्मक संवेगों के वशीभूत होकर विनाशकारी प्रवृत्तियों में भाग लेगा। उसका व्यवहार निषेधात्मक बन जायेगा।३५

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