Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 44
________________ संवेग के मूल रहस्य की जैन दृष्टि : 35 मोह का अर्थ है आत्मा में राग का भाव, कषाय का भाव। इसलिए मूल तत्त्व राग है, जो कि हमारे सारे संवेगों को प्रभावित और प्रस्तुत करने में सक्षम है। जब तक राग है तभी तक संवेग है। राग छूटते ही संवेग छूट जाता है। वीतराग असंवेगी या समता में स्थित अवस्था को परम संवेग कहा जाता है। महर्षि पतंजलि ने चित्तवृत्ति के विश्लेषण में स्पष्ट किया है कि चित्त रूपी समुद्र में रागद्वेष रूपी तरंगें, ऊर्मियां उठती रहती हैं। उनसे कभी सख, कभी दःख, कभी क्रोध, कभी प्रेम, कभी हर्ष तो कभी शोक आदि उपतरंगें पैदा होती रहती हैं। ये ही वृत्ति का वर्तृल या आवर्त है। इसे निरुद्ध करने के लिए राग-भाव को ही पुरुष से अलग करने का निर्देश दिया है। उसे ही योग कहा है। प्रकृति और पुरुष में अभेद का मूल कारण अविद्या ही है तथा विवेक ख्यातिरूप भेदज्ञान से पुरुष अज्ञानमुक्त स्वस्वरूप में स्थित हो जाता है। उस स्थिति में राग के अभाव में वृत्तिरूप सारे संवेग थम जाते हैं। शुद्धतम अवस्था प्राप्त हो जाती है। जैन साहित्य के प्रतिनिधि ग्रन्थ आचारांग में कहा गया है “अणेगे चित्ते खलु अयं पुरिसे' अर्थात् आत्मा अनेक चित्त वाली है अर्थात् आत्मा में राग की तरतमता से अनेक वृत्तियाँ जन्मती रहती हैं। इससे आत्मा का स्वभाव, विभाव में बदल जाता है तथा योगत्रय (मन, वचन, काया) की चंचलता भी पैदा हो जाती है। चित्त की गेंद को उछालने वाला राग है। हमारा सारा बदलता व्यवहार, संवेग परम्परा आदि के मूल में राग रहता है।१२ द्वेष तो वास्तव में राग का ही उपजीवी है। राग में जब बाधा आती है तब द्वेष प्रकट होता है।११ 'द्वेष' शब्द द्विष् धातु और घञ् प्रत्यय से बना है जिसका अर्थ है घृणा, अरुचि, वीभत्स, अनिच्छा और जुगुप्सा। मनुष्य का स्वभाव वस्तुओं की ओर आकृष्ट होने का है, इसलिए उन चीजों के प्रति वह ज्यादा जागरूक रहता है, जिससे मैं और मेरापन बढ़े। उन चीजों के प्रति जागरूक नहीं रहता जो घृणास्पद हैं। इस तथ्य में भी राग मूल संवेग है, ऐसा सिद्ध हो रहा है। प्रिय व्यक्ति या वस्तु के चले जाने पर व्यक्ति शोक संताप करता है, उसके लिए परेशान रहता है। इन सबके मूल में तो उसका स्नेह या राग ही कार्य कर रहा है। शोक का मूल है स्नेह।५। राग शब्द विभिन्न सन्दर्भो में प्रयुक्त होता रहा है। राग की उत्पत्ति अनेक कारणों से होती है। उन हेतुओं से प्रकट राग के भी विविध प्रकार बन जाते हैं। जैसे मत के प्रति रुचि है, वैसा राग पैदा होता है। दृष्टिरंभा, कामराग तथा स्नेहभाव से स्नेह राग पैदा हो जाता है। 'राग' शब्द र ज भावे घञ् प्रत्यय से बना है जिसका अर्थ है वर्ण, लाल रंग। भावार्थ है प्रेम, प्रणयोन्माद, स्नेह, काम भावना आदि।१६ राग को बन्ध भी कहा गया है, जैसे भंवरा फूलों के पराग से राग करता है, उसकी आसक्ति के

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