Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 40
________________ संवेग के मूल रहस्य की जैन दृष्टि : 31 मंजिल नहीं हैं, प्रवाह है, किनारा नहीं। प्रत्येक चिन्तनशील व्यक्ति ने इसे समझनेसमझाने का प्रयास किया ताकि संवेग की जटिलता कम हो। उसकी सरलता ही उसे समझने में मदद कर सकती है। मानव मस्तिष्क की एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा रही है कि वह किसी भी वस्तु के मूल को खोजना चाहता है। संवेग के सन्दर्भ में भी यह प्रश्न सदैव उठता रहा है कि मूल संवेग किसे माना जाए, या संवेग का मूल या स्रोत क्या हो सकता है? जैन धर्मदर्शन आत्म-प्रधान रहा है। आत्मा की दो अवस्थाएँ बताई गई हैं- बद्ध और मुक्त। बद्ध का तात्पर्य आत्मा का कर्मयुक्त होना, दुःखी होना है तथा मुक्त का तात्पर्य कर्ममुक्त होने से है। कर्म व्यवस्था को आचार्य महाप्रज्ञ ने आधुनिक भाषा में प्रस्तुत करते हुये कहा है कि आत्मा स्वयं स्वरूपत: तो शुद्ध है, असंवेगी है, लेकिन उसकी अनादिकालीन कर्म संगति के कारण आन्तरिक परिस्थिति के रूप में रागात्मक परिणति होती है, जिससे मैं और मेरापन पैदा होता है। शरीर आदि सांसारिक पदार्थों में अभेद बुद्धि का निर्माण मिथ्यात्व, माया या अविद्या कहलाता है। यह आंतरिक परिस्थिति बाह्य जगत् से जुड़कर हमारे सारे आचार, व्यवहार को नियंत्रित करती है। जैन मनोविज्ञान का केन्द्र बिन्दु रहा है मोह को समझना तथा उससे अपनी समस्याओं का समाधान करना। मोहकर्म ही सही अर्थ में शत्रु है, क्योंकि सम्पूर्ण दुःखों की प्राप्ति में मोह ही निमित्त बनता है। मोह के समाप्त होने पर शेष सभी कर्मों का व्यापार प्रायः विफल हो जाता हैं। कुछ कर्म जो वर्तमान जीवन को टिकाने भर का कार्य करते हैं। उनका अस्तित्व होना, न होने जैसा कहा जा सकता है इसलिए मोह गया तो दुःख गया। सभी संवेगों की जड़ मोह में खोजी जा सकती है। 'मोह' शब्द का अनेक सन्दर्भ में प्रयोग हुआ है। उसके विभिन्न रूप बताये गए हैं- राग-द्वेष, मूर्छा, आसक्ति, तृष्णा, इच्छा, लोभ, काम, क्रोध, मान, माया, सुख-दुःख, पुण्य-पाप, मिथ्यात्व, प्रमाद, आकांक्षा, कषाय और योग आदि अर्थों में मोह शब्द का विश्लेषण संवेग के तलस्पर्शी अध्ययन में सहायक सिद्ध हो सकता है। समवाओ में मोह शब्द के ५२ नामों का उल्लेख मिलता है। वे मूलत: इसकी विभिन्न परिणतियां हैं या उनको संवेग के प्रकार आदि कहा जा सकता है।' डॉ० बलदेव उपाध्याय के अनुसार जैन धर्म आचार पर विशेष बल देता है। जब व्यक्ति का आचार-व्यवहार उचित नहीं होता तब उसे दुःख होना स्वाभाविक है। जैनधर्म और दर्शन में कर्म की अत्यन्त सूक्ष्म व्याख्या की गई है और सार रूप में यह कहा गया है कि समग्र कर्मों के आत्यन्तिक क्षय होने से मुक्ति मिलती है। यहां

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