Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 27
________________ 18 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 सकते थे? क्या उनकी प्रतिभा शक्ति इतनी अविकसित थी कि संथारे और आत्महत्या का अन्तर भी नहीं समझ सके। इन दोनों घटनाओं में (आत्महत्या व संथारे में) समानता है तो केवल इतनी ही कि दोनों का परिणाम या उत्तरकाल मृत्यु होती है अन्यथा ये दोनों किसी भी अर्थ में समान नहीं हैं। आत्महत्या और संथारे के बीच मूलभूत अन्तर निम्न बातों का है१. मानसिक भाव २. साधनों का प्रयोग ३. समय की अवधि ४. परिवार और समाज का प्रभाव १. मानसिक भाव - आत्महत्या करने वाला व्यक्ति तीव्र कषाय के वशीभूत होता है। वह किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए इतना अधिक आकुल और आतुर हो जाता है कि वह न मिले तो जीवन को गंवाने के लिए उद्यत हो जाता है। वह वस्तु पत्नी, प्रेमिका, धन, नौकरी, प्रतिष्ठा किसी भी रूप में हो सकती है। बीमारी से परेशान होकर, अपमान से व्यथित होकर, प्रतिशोध से ग्रस्त होकर या जीवन की निरर्थकता का एहसास होने पर वह इस दुस्साहसिक कदम को उठाता है जबकि संथारा करने वाला व्यक्ति किसी से भी खिन्न या नाराज नहीं होता। जब साधक अपने जीवन को कृत-कृत्य एवं सफल मान लेता है, अपनी धर्म साधना को अधिक उच्च शिखरों पर ले जाना चाहता है, मोह, क्रोध, प्रतिशोध, लोभ आदि को बिल्कुल जड़ से मिटाना चाहता है, तब वह संथारा करने का मन बनाता है। संथारा स्वीकार करने से पूर्व अपने मनोभावों को और भी निर्मल बनाने का प्रयास करता है। समग्र जीवन में किसी से मनमुटाव, नाराजगी या कलह आदि के प्रसंग बने भी हों तो संथारे से पूर्व उन सब व्यक्तियों से हार्दिक क्षमा याचना करनी होती है। मानसिक संक्लेश का अंश मात्र भी मन पर अवशिष्ट न रहे, यह शर्त पूरी करनी होती है। इसके अलावा सम्पूर्ण जीवन में अपनी स्वीकृत प्रतिज्ञाओं, व्रतों में कोई दोष लग गया हो, अपने नैतिक, चारित्रिक, आध्यात्मिक मूल्यों का इरादतन-गैरइरादतन उल्लंघन किया हो, उन्हें अच्छी तरह याद करके अपने श्रद्धेय गुरुओं के चरणों में उनकी आलोचना करना भी जरूरी होता है। अपने अपराधों को स्पष्टतया स्वीकार करके इनके लिए दण्ड या प्रायश्चित्त लिया जाता है तथा भविष्य के लिए सब प्रकार के पापों का मन, वचन काय से न करने का, न करवाने का तथा न समर्थन करने का प्रण लिया जाता है।

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