Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 29
________________ 20 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 हो रही हैं; मैं अपने महाव्रतों का या अणुव्रतों का सही ढंग से निर्वाह नहीं कर पा रहा हूँ, तब अपने नियमों की सुरक्षा के लिए भी वह आहार, दवा का परित्याग कर सकता है। उसे अपेन स्वीकृत धर्म में स्वल्प स्खलना या त्रुटि भी सहन नहीं होती। कल्पना कीजिये कि कोई शुद्ध शाकाहारी मनुष्य किसी ऐसे स्थान पर पहुँच गया जहाँ मांसाहार के अलावा कुछ नहीं मिलता। उस समय यदि वह तत्रोपलब्ध आहार नहीं करता तो पाप की बजाय धर्म का ही भागी माना जाता है। ऐसे ही वृद्ध तथा रुग्ण अवस्था में सदोष आहार लेना पड़े, रात्रि आदि के समय लेने की मजबूरी बनने लगे, तो ऐसी स्थिति में संथारा ग्रहण करना एक उत्तम रास्ता है। भोजन और दवा का स्वेच्छिक त्याग तो सामान्य मानव भी कर लेते हैं, जैसे कि अस्पतालों से मरीज यह कहकर छुट्टी ले लेते हैं कि हमें अब उपचार नहीं लेना। यह उनका निजी अधिकार है। अत: स्वत: भोजन या औषधि को छोड़ना आत्महत्या नहीं अपितु संथारे की स्थिति है, दोनों एक नहीं हैं। हजारों लाखों में एकाध मामले ही ऐसे सुनने में आते हैं कि किसी धर्मात्मा ने बाह्य साधनों का भी प्रयोग करके अपनी लीला समेट ली, जैसे चन्दनबाला की माँ ने अपने शील की रक्षा के लिए अपनी जीभ खींच ली तथा कोई साधु-साध्वी अपने समय की सुरक्षा के लिए फंदा लटकाकर समाप्त हो गया। उन स्थितियों में जैन धर्म ने उनके उस प्रयास को निन्दनीय तो नहीं कहा पर उसे संथारा भी नहीं कहा। संथारा तो वही है जो सहज.भाव से अपनाया जाए। साधनों का अनिवार्य प्रयोग और नितान्त अप्रयोग आत्महत्या तथा संथारे को पूर्णत: भिन्न सिद्ध करता है। ३. समय की अवधि : जहाँ तक समय की अवधि का प्रश्न है वहाँ आत्महत्या तो कुछ क्षणों का ही खेल है। उसे क्षणिक उन्माद, आवेश, आवेग और पागलपन कहा जा सकता है। जब कोई मानव नकारात्मक सोच का शिकार हो जाता है तो वह तत्काल. मरने पर उतारू हो जाता है। उसके पास धैर्य नहीं होता। उसे मृत्यु चाहिए, वह भी फौरन। शत् प्रतिशत केस ऐसे मिलेंगे कि कोई व्यक्ति आत्महत्या के लिए नदी आदि में कूदता है और उसे बचा लिया जाता है तो वह बचाने वाले का धन्यवाद करता है। वह तुरन्त मर जाता तो बात अलग थी। वर्ना वह देर तक मृत्यु का सामना नहीं कर सकता। जो लोग क्रोध में आग लगा लेते हैं या सल्फास (जहरीले पदार्थ) खा लेते हैं, वे भी बचाओ-बचाओ कहने लगते हैं अर्थात् आत्महत्या का काल अत्यल्प होता है जबकि संथारा लेनेवाला तो अनन्त धैर्यधारी व्यक्ति होता है। वह भोजन का त्याग करके शरीर से निरपेक्ष (शरीर का दुश्मन नहीं) होकर आत्म चिन्तन, प्रभु भजन, धर्मश्रवण में लीन हो जाता है। उसे न जीने की

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