Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 28
________________ पवित्र परम्परा संथाराः एक संक्षिप्त चर्चा : 19 समग्र जीव राशि से क्षमा याचना की जाती है। क्या आत्महत्या तथा संथारे के मनोभावों में कहीं समानता प्रतीत होती है? आत्महत्या यदि काला कोयला है तो संलेखना तराशा हुआ हीरा। २. साधनों का प्रयोग - आत्महत्या में अग्नि, विष, शस्त्र, जल आदि साधनों का प्रयोग अनिवार्य होता है। आत्महत्या के विश्व में जितने भी मामले सामने आए हैं उन सब में किसी न किसी बाह्य साधन को अपनाकर जबरदस्ती शरीर का अन्त किया गया है। चाहे किसी ने फांसी का फंदा लटकाया, जहर या नींद की गोलियां खाई, पर्वत, वृक्ष, ऊंचे भवनों से छलांग लगाई, नदी, कुएं में डूबे, मिट्टी के तेल, पेट्रोल छिड़ककर आग लगाई, रिवाल्वर अपनी कनपटी पर रखकर ट्रिगर दबाया, या प्लास्टिक के थैले से अपनी सांस घोट लिया। कुछ भी किया हो पर इतना स्पष्ट है कि कोई भी आत्महत्या साधन के प्रयोग के बिना सम्भव ही नहीं हो सकती। जबकि संथारे के लिए किसी भी घातक साधन का प्रयोग न करना पूर्व शर्त है। यदि ऐसा किया तो वह धार्मिक क्रिया न होकर अत्यन्त पापमय क्रिया हो जाएगी। यदि शुद्ध भावों के साथ भी अशुद्ध साधन का प्रयोग हो जाए तो जैन धर्म ने उसे संथारा नहीं माना है, न ही इसकी अनुमति दी है। रत्नकरण्डश्रावकाचार आदि ग्रन्थों में अग्निप्रवेश, जल- प्रवेश, वृक्ष पतन आदि से मरने वाले साधकों को मूढ़ कहा गया है। संथारें में शुद्ध मनोभावों वाला साधक सिर्फ आहार का ही त्याग करता है। क्योंकि वह अनुभव करने लगता है कि अब इस शरीर को आहार-पानी-दवा आदि दूंगा तो आहार पानी शरीर के लिए सहायक न होकर पीडावर्द्धक ही होंगे। पीड़ा बढ़ने से कहीं मानसिक असमाधि न हो जाए, उस असमाधि से बचने के लिए भोजन का त्याग कर देना ही उचित है। जब तक भोजन करने से जीवन यात्रा, संयम-साधना निर्बाध गति से चलती रही, तब तक आहार का सहारा लिया, किन्तु जब यह लगा कि आहार सहायक न होकर बाधक बन रहा है, तब आहार को छोड़ देने का निर्णय ले लिया। यह निर्णय भी कोई एक झटके के साथ नहीं लिया जाता, अपितु पूर्वापर का विचार करके ही लिया जाता है। संथारे की ओर बढ़ने वाला व्यक्ति अपने पूर्व जीवन में भी समय-समय पर आहार छोड़कर तप करता है, कभी एक दिन, कभी दो दिन, कभी ४,५,९,१० दिन, कभी महीने या छह महीने भी। संयम और तप उसकी खुराक होती है। पहले जितना भी तप किया जाता था, वह अल्पकालिक तप होता था, लेकिन अब उसका संकल्प सार्वकालिक तप हो गया। जैन परिभाषा में पहले तप को इत्वरिक तथा दूसरे तप को यावत्कथिक नाम दिया गया है। संथारा ग्रहण करने वाला कई बार यह भी देखता है कि यद्यपि आहार-दवा आदि शरीर के प्रतिकूल तो नहीं पड़ रहे पर उनके सेवन से मेरे लिए हुए नियम और दूसरी प्रतिज्ञाएं भंग

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