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जैनधर्मदर्शन में समाधिमरण आत्महत्या नहीं : 7 लेकिन गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह धारणा प्रान्त सिद्ध होती है। उपाध्याय अमर मुनिजी लिखते हैं, “वह (जैनदर्शन) जीवन से इनकार नहीं करता, अपितु जीवन के मिथ्या मोह से इनकार करता है। जीवन जीने में यदि कोई महत्त्वपूर्ण लाभ है और वह स्व-पर की हित-साधना में उपयोगी है तो जीवन सर्वतोभावेन संरक्षणीय है।' १७ आचार्य भद्रबाह कहते हैं- “साधक की देह संयम की साधना के लिए है। यदि देह ही नहीं रही तो संयम कैसे रहेगा, अत: संयम की साधना के लिये देह का परिपालन इष्ट है। देह का परिपालन संयम के निमित्त है, अत: देह का ऐसा परिपालन जिसमें संयम ही समाप्त हो जाय, किस काम का"।" साधक का जीवन न तो जीने के लिए है, न मरण के लिए है। वह तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सिद्धि के लिए है। यदि जीवन से ज्ञानादि की सिद्धि एवं वृद्धि हो तो जीवन की रक्षा करते हुए वैसा करना चाहिए, किन्तु यदि जीवन से भी ज्ञानादि की अभीष्ट सिद्धि नहीं होती हो तो वह मरण भी साधक के लिए शिरसा श्लाघनीय है।९ समाधिमरण का मूल्यांकन स्वेच्छामरण के विषय में पहला प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य को प्राणान्त करने का नैतिक अधिकार है? पं. सुखलालजी ने जैन दृष्टि से इस प्रश्न का जो उत्तर दिया है उसका संक्षिप्त सार यह है कि जैनधर्म सामान्य स्थितियों में चाहे वह लौकिक हो या धार्मिक, प्राणान्त करने का अधिकार नहीं देता है, लेकिन जब देह और आध्यात्मिक सद्गुण, इनमें से किसी एक को चुनने का समय आ गया हो तो देह का त्याग करके भी अपने विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति को बचाना चाहिए; जैसे सती स्त्री दूसरा मार्ग न देखकर देहनाश के द्वारा भी अपने सतीत्व की रक्षा करती है। देह और संयम दोनों की समान भाव से रक्षा हो सके तो दोनों की ही रक्षा कर्तव्य है, पर जब एक की रक्षा का प्रश्न आये तो सामान्य व्यक्ति देह की रक्षा पसन्द करेंगे
और संयम की उपेक्षा करेंगे, जबकि समाधिमरण का अधिकारी संयम की रक्षा को महत्त्व देगा। जीवन तो दोनों ही हैं- दैहिक और आध्यात्मिक। आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए साधक को प्राणान्त या अनशन की इजाजत है, पामरों, भयभीतों और लालचियों के लिए नहीं। भयंकर दुष्काल आदि आपत्तियों में देह-रक्षा के निमित्त से संयम से पतित होने का अवसर यदि आ जाये अथवा अनिवार्य रूप से मरण लाने वाली बीमारियों के कारण खुद को और दूसरों को निरर्थक परेशानी होती हो और संयम और सद्गुण की रक्षा सम्भव न हो, तब मात्र समभाव की दृष्टि से संथारे या स्वेच्छामरण का विधान है। यदि सद्गुणों की रक्षा के निमित्त देह का विसर्जन किया जाता है तो वह अनैतिक नहीं है। नैतिकता की रक्षा के लिए किया गया देह-विसर्जन अनैतिक कैसे होगा?