________________
14 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 होने का व्रत करवाते हैं। जैन धर्म में तो आत्महत्या के लिए इतना घृणित स्थान है कि जब कभी किसी उच्च साधना के साथ आत्महत्या की तुलना सुनने में आती है, तब मन विद्रोही सा होने लगता है। जैन धर्म में त्याग और तपस्या के लिए सदैव प्रेरणा दी जाती है। संसार से, परिकर से, शरीर से, मोह, आकर्षण तथा लगाव कम करना ऊंचा धर्म माना जाता है क्योंकि इसी मोह के कारण मनुष्य राग-द्वेषमय प्रवृत्ति करता है। आज संसार में जितनी भी विषमताएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं उनका मुख्य कारण मोह है, चाहे वह मोह परिवार से हो, अपने शरीर से हो अथवा अपने मनोभावों से हो। जैन साधना पद्धति में इसी मोह को कम करने का प्रयत्न किया जाता है तथा साधु जीवन में इसे नष्ट करने का संकल्प लिया जाता है। जब कोई साधक संन्यास धर्म में प्रवेश करता है तब वह नाना प्रकार के नियमोंपनियमों का पालन करने की प्रतिज्ञा करता है। जैन साधना में ब्रह्मचर्य पालन, रात्रि भोजन का त्याग, नंगे पैरों से विहार, केश लोच, अत्यल्प वस्त्र या अवस्त्र अवस्था आदि आवश्यक नियम होते हैं। इन सबका मुख्य उद्देश्य यही है कि शरीर से अत्यधिक आसक्ति न रहे
और यह मन निर्द्वन्द्व और निश्चिन्त रहे। इस निर्मोह अवस्था को पुष्ट करने के लिए नाना प्रकार के विधि विधान जैन शास्त्रों में प्ररूपित किए गये हैं। तीन मनोरथ इसी निर्मोहता के लिए विहित किए गए हैं। प्रत्येक गृहस्थ प्रतिदिन प्रात: उठते ही भावना भाता है कि १. मैं आरम्भ परिग्रह न्यून करूँ, २. मैं गृहस्थ जीवन छोड़कर साधु बनूँ, ३. मैं अंतिम समय में शरीर की ममता छोड़कर संलेखना संथारा करूँ। प्रत्येक साधु यह भावना भाता है कि १. मैं अधिकाधिक शास्त्रों का अध्ययन करूँ, २. मैं सभी आश्रयों को छोड़कर एकाकी विचरण करूँ, ३. मैं अंतिम समय में शरीर की ममता छोड़कर संलेखना संथारा करूँ। संलेखना-संथारा श्रावक और साधु का अंतिम लक्ष्य तो है पर उसके लिए वह जीवन की उपेक्षा नहीं करता। जैन धर्म में संयमी जीवन को ही अधिमान दिया जाता है। ऐसा कोई विधान नहीं है कि मुनि दीक्षा लेते ही संथारा ग्रहण कर ले। साधक का अधिकाधिक यह प्रयास होता है कि जहाँ तक संभव हो वहाँ तक जीवन की रक्षा की जाए। मनुष्य जन्म की उपलब्धि को अन्य सभी धर्म-ग्रन्थों की तरह जैन आगमों में भी अति दुर्लभ माना गया है -
“कम्माणं तु पहाणाए आणुपुव्वी कयाइ वि। जीवा सोहिमणुप्पत्ता आययंति मणुस्सयं''।