Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 18
________________ जैनधर्मदर्शन में समाधिमरण आत्महत्या नहीं : 9 भारतीय नैतिक चिन्तन में केवल जीवन जीने की कला पर ही नहीं, वरन् उसमें जीवन की कला के साथ-साथ मरण की कला पर भी विचार हुआ है। नैतिक चिन्तन की दृष्टि से जीवन को कैसे जीना चाहिए, यही महत्त्वपूर्ण नहीं है, वरन् कैसे मरना चाहिए यह भी महत्त्वपूर्ण है। मृत्यु की कला जीवन की कला से भी महत्त्वपूर्ण है। आदर्श मृत्यु ही नैतिक जीवन की कसौटी है। जीना तो विद्यार्थी के सत्रकालीन अध्ययन के समान है, जबकि मृत्यु परीक्षा का अवसर है। हम जीवन की कमाई का अन्तिम सौदा मृत्यु के समय करते हैं। यहाँ चूके तो फिर पछताना होता है और इसी अपेक्षा से कहा जा सकता है कि जीवन की कला की अपेक्षा मृत्यु की कला अधिक मूल्यवान् है। भारतीय नैतिक चिन्तन के अनुसार मृत्यु का अवसर ऐसा अवसर है जब अधिकांश जन अपने भावी जीवन का चुनाव करते हैं। गीता का कथन है कि मृत्यु के समय जैसी भावना होती है, जीव वैसी ही योनि प्राप्त करता है। जैन-परम्परा में खन्धक मुनि की कथा यही बताती है कि जीवन भर कठोर साधना करने वाला महान् साधक जिसने अपनी प्रेरणा एवं उद्बोधन से अपने सहचारी पांच सौ साधक शिष्यों को उपस्थित मृत्यु की विषम परिस्थिति में समत्व की साधना के द्वारा निर्वाण का अमृत पान कराया, वही साधक स्वयं की मृत्यु के अवसर पर क्रोध के वशीभूत होकर किस प्रकार अपने साधना पथ से विचलित हो गया। वैदिक परम्परा में जड़भरत का कथानक भी यही बताता है कि इतने महान् साधक को भी मरणवेला में हिरण पर आसक्ति रखने के कारण पशु-योनि में जाना पड़ा। ये कथानक हमारे सामने मृत्यु का मूल्य उपस्थित करते हैं। मृत्यु जीवन की साधना का परीक्षाकाल है, वह इस जीवन में लक्षोपलब्धि का अन्तिम अवसर और भावी जीवन की साधना का आरम्भ बिन्दु है। इस प्रकार वह अपने में दो जीवनों का मूल्य संजोए हुए है। मरण जीवन का अवश्यम्भावी अंग है, उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। वह जीवन का उपसंहार है, जिसे सुन्दर बनाना एक आवश्यक कर्त्तव्य है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्प्रति युग के प्रबुद्ध विचारक भी समाधिमरण को अनैतिक नहीं मानते हैं। अत: जैन धर्म पर लगाया जाने वाला यह आक्षेप कि वह जीवन के मूल्य को अस्वीकार करता है, उचित नहीं है। वस्तुतः समाधिमरण पर जो आक्षेप लगाये जाते हैं, उनका सम्बन्ध समाधिमरण से न होकर आत्महत्या से है। कुछ विचारकों ने समाधिमरण और आत्महत्या के वास्तविक अन्तर को नहीं समझा और इसी आधार पर समाधिमरण को अनैतिक कहने का प्रयास किया, लेकिन समाधिमरण या स्वेच्छामरण आत्महत्या नहीं है और इसलिए उसे अनैतिक भी नहीं कह सकते। जैन आचार्यों ने स्वयं ही आत्महत्या को अनैतिक माना है लेकिन उनके अनुसार आत्महत्या समाधिमरण से भिन्न है। डॉ० ईश्वरचन्द्र ने जीवन्मुक्त व्यक्ति के

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