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जैनधर्मदर्शन में समाधिमरण आत्महत्या नहीं : 11 है तो हीन स्थिति और हीन विचार या हीन सिद्धान्त मान्य रखना ही जरूरी है, तब श्रेष्ठ पुरुष कहता है कि जीने से नहीं, मरकर ही आत्मरक्षा होती है। वस्तुतः समाधिमरण का व्रत हमारे आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों के संरक्षण के लिए ही लिया जाता है और इसलिए यह पूर्णत: नैतिक भी है। यह किसी भी रूप में आत्महत्या नहीं है। सन्दर्भ : १. उतराध्ययन,५.२ २. वही, ५.३ ३. वही,५.३२ ४. सकाम का अर्थ स्वेच्छापूर्वक है, न कि कामवासनायुक्त ५. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, अध्याय ५ ६. प्रतिक्रमणसूत्र-संलेखना पाठ ७. संयुत्तनिकाय, २१.२.४.५ ८. वही, ३४.२.४.४ ९. पाराशरस्मृति, ४.१.२ १०. महाभारत, आदिपर्व, १७९.२० ११. अपरार्क, पृ० ५५३६ उद्धृत- धर्मशास्त्र का इतिहास, पृ० ४८८ १२. धर्मशास्त्र का इतिहास पृ० ४८७ १३. वही, पृ० ४८९ १४. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक २२ १५. दर्शन और चिन्तन, पृ० ५३६ तथा परमसखा मृत्यु, पृ० २४ १६. वही, खण्ड २. पृ० ३६ पर उद्धृत १७. अमरभारती, मार्च, १९६५, पृ० २६ १८. ओघनियुक्ति, ४७ १९. अमरभारती, मार्च, १९६५, पृ० २६ तुलनीय विसुद्धिमग्ग, १.१३३ २०. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ०५३३-३४ २१. गीता, २.३४ २२. परमसखा मृत्यु. पृ०३१ २३. वही, पृ० २६