Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 13
________________ 4 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 3, जुलाई-सितम्बर, 2015 करता है, वह साठ हजार वर्ष तक नरकवास करता है। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार भी आत्महत्या करनेवाला कल्याणप्रद लोकों में नहीं जा सकता है। लेकिन इनके अतिरिक्त हिन्दू धर्म-शास्त्रों में ऐसे भी अनेक उल्लेख हैं जो स्वेच्छा-पूर्वक मृत्युवरण का समर्थन करते हैं। प्रायश्चित्त के निमित्त से मृत्युवरण का समर्थन मनुस्मृति (११.९०-९१), याज्ञवल्क्यस्मृति (३.२५३), गौतमस्मृति (२३.१), वासिष्ठ धर्मसूत्र (२०.२२, १३.१४) और आपस्तम्बसूत्र (१.९.२५.१-३,६) में भी है। इतना ही नहीं, हिन्दू धर्म-शास्त्रों में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ मृत्युवरण को पवित्र एवं धार्मिक आचरण के रूप में देखा गया है। महाभारत के अनुशासनपर्व (२५.६२-६४), वनपर्व (८५.८३) एवं मत्स्यपुराण (१८६.३४,३५) में अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषप्रयोग या उपवास आदि के द्वारा देह त्याग करने पर ब्रह्मलोक या मुक्ति प्राप्त होती है, ऐसा माना गया है। अपरार्क ने प्राचीन आचार्यों के मत को उद्धृत करते हुए लिखा है कि यदि कोई गृहस्थ असाध्य रोग से पीड़ित हो, अतिवृद्ध हो, किसी इन्द्रिय से उत्पन आनन्द का अभिलाषी न हो, जिसने अपने कर्तव्य पूर्ण कर लिये हों, वह महाप्रस्थान, अग्नि या जल' में प्रवेश करके अथवा पर्वत-शिखर से गिरकर अपने प्राणों का विसर्जन कर सकता है। ऐसा करके वह कोई पाप नहीं करता। उसकी मृत्यु तो तपों से भी बढ़कर है। शास्त्रानुमोदित कर्त्तव्यों के पालन में अशक्त होने पर जीने की इच्छा रखना व्यर्थ है। श्रीमद्भागवत के ११वें स्कन्ध के १८वें अध्याय में भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण को स्वीकार किया गया है। वैदिक परम्परा में स्वेच्छा-मृत्युवरण का समर्थन न केवल शास्त्रीय आधारों पर हुआ है, वरन् व्यावहारिक जीवन में भी इसके अनेक उदाहरण वैदिक परम्परा में उपलब्ध हैं। महाभारत में पाण्डवों के द्वारा हिमालय-यात्रा में किया गया देहपात मृत्युवरण का ही उदाहरण है। डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे ने वाल्मीकि रामायण एवं अन्य वैदिक धर्मग्रन्थों तथा शिलालेखों के आधार पर शरभंग, महाराजा रघु, कलचुरी के राजा गांगेय, चन्देलकुल के राजा गंगदेव, चालुक्यराज सोमेश्वर आदि के स्वेच्छा-मृत्युवरण का उल्लेख किया है।१२ प्रयाग में अक्षयवट से कूदकर गंगा में प्राणान्त करने की प्रथा तथा काशी में करीत लेने की प्रथा वैदिक परम्परा में मध्य युग तक प्रचलित थी। यद्यपि ये प्रथाएँ आज नामशेष हो गयी हैं, तथापि वैदिक संन्यासियों द्वारा जीवित समाधि लेने की प्रथा आज भी जनमानस में श्रद्धा का केन्द्र है।१३ इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल जैन और बौद्ध परम्पराओं में, बल्कि वैदिक परम्परा में भी मृत्युवरण का समर्थन है। लेकिन जैन और वैदिक परम्पराओं में प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ वैदिक परम्परा में जल एवं अग्नि में प्रवेश, गिरि-शिखर.से

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