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लाओं' कहा जाय तो वहाँ 'सैन्धव' का अर्थ होगा- घोड़ा। प्रत्येक शब्द के कम से कम चार अर्थ मिलते हैं, वे ही चार अर्थ उस शब्द के अर्थ सामान्य के चार विभाग हैं जिन्हें निक्षेप या न्यास कहते हैं।
नय और निक्षेप की अवधारणाएँ प्राचीन (चौथी-तीसरी शती) हैं।ये स्याद्वाद और सप्तभंगी के विकास के पूर्व की है। निक्षेप की अवधारणा को यदि हम ऐतिहासिक विकास क्रम में देखें तो जैन वाङ्मय में निक्षेप के सिलसिलेवार विकास क्रम का अभाव है। निक्षेप जिस रूप में और जिन-जिन अर्थों में जैन आगमिक साहित्य में बिखरा हुआ है, उनमें ऐतिहासिक सम्बन्ध दर्शाने वाला कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता। प्रो०बी०डी० भट्ट के अनुसार इन निक्षेपों को इनके अर्थ, प्रकार परिभाषा एवं तार्किक शब्दावली की दृष्टि से किसी निश्चित सीमा या क्राइटेरिया में बाँधा नहीं जा सकता। प्रो० भट्ट के अनुसार निक्षेप को मुख्यतया आगमिक निक्षेप (Canonical Positings)
और आगमोत्तर निक्षेप (Post Canonical Positings) के रूप में दो भागों में बाँटा जा सकता है।
जिन श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों में निक्षेप का विवेचन उपलब्ध है उनमें भगवती, जीवाभिगम और प्रज्ञापना ये तीन प्रमुख ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त- स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, ज्ञाताधर्मकथा, औपपातिक, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी और अनुयोगद्वार में भी निक्षेप की विस्तृत चर्चा की गयी है। दिगम्बर आगमों में षटखण्डागम, धवला, कसायपाहुड आदि प्रमुख हैं जिनमें निक्षेप का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है।
__ आगमों के अतिरिक्त श्वेताम्बर दिगम्बर व्याख्या साहित्य में भी निक्षेप की अवधारणा के प्रचुर उल्लेख एवं विवरण उपलब्ध हैं। उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र, राजवार्तिक, नयचक्र, आप्तपरीक्षा, श्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थों में भी निक्षेप की अवधारणा प्राप्त होती है। अत: ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से निक्षेप सिद्धान्त एक प्राचीन सिद्धान्त है।
प्रश्न यह उठता है कि नय जब स्वयं वाच्यार्थ निरूपण में समर्थ है तो निक्षेप की क्या आवश्यकता है? राजवार्तिक में कहा गया है कि जो विद्वान् शिष्य हैं वे केवल दो नयों से ही वक्ता के द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ को समझ लेते हैं लेकिन जो मन्दबुद्धि शिष्य हैं उनके लिए पृथक नय एवं निक्षेप का कथन किया गया है। सामान्य लक्षण
'न्यसनं न्यस्यतइति वा न्यासो निक्षेप इत्यर्थः।' अर्थात् नामादिकों में वस्तु के रखने का नाम निक्षेप है।
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