Book Title: Sona aur Sugandh
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 111
________________ १०२ | सोना और सुगन्ध बाहरी स्पर्श से बिगाड़ना असम्भव है और हर प्राणी की आत्मा ऐसा ही सत्य है ।" मुनि अरणिक माँ के साथ लौट आये । कमान से छूटे हुए तीर को कौन पकड़ पाया है ? मुनि अरणिक को अपने काम - कीचड़ में फँसाने वाली विवश नारी देखती ही रह गई। मुनि अरणिक ने फिर मुड़कर भी नहीं देखा । जो अविवेक के कारण अपने को बन्धन में डालता है, विवेक जाग्रत होने पर वही व्यक्ति बड़े-से-बड़े बन्धन को एक ही झटके से तोड़ देता है । वासना का उन्माद थोड़ी देर ही रहता है, पर उसका पछतावा बहुत देर तक । पछतावा हृदय की वेदना है और साथ ही निर्मल जीवन का उदय मुनि अरणिक का जीवन अब पूर्णतः निर्मल बन गया था । X X X अपनी माता के साथ मुनि अरणिक गुरु के समक्ष उपस्थित हुए। गुरु ने पुनः चारित्र ग्रहण कराया। मुनि ने माता और गुरु से कहा "आपकी कृपा से आज मेरा जीवन पुनः पवित्र हो गया। अब तक के जीवन में मैंने अनुभव किया कि चारित्र का पालन अत्यन्त कठिन है । लेकिन इसका अभिप्राय आप यह न समझें कि मेरी प्रवृत्ति भोगों की ओर उम्मुख है ।" मुनि अरणिक ने फिर गुरु से निवेदन किया"गुरुदेव ! आपकी आज्ञा हो तो मैं दूसरे ढंग से कर्मों Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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