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१३० | सोना और सुगन्ध ___'पुत्र इसी धन से तेरा पालन-पोषण हुआ है और इसी धन को तू अपना नहीं मानता ?"
"पिताजी ! पुत्र का पालन करना तो पिता का कर्तव्य है, पर पुत्र को अकर्मण्य बनाना पिता का फर्ज नहीं। पिता के धन को पाकर पुत्र धन का महत्व नहीं समझता। पिता के धन से खर्च करने की आदत बढ़ती है और उपार्जन की क्षमता मिटती है।" ।
व्यापारी ने एक बार और कहा
"लेकिन भाग्य से प्राप्त धन को कौन ठुकराता है ? माना कि यह धन तेरे द्वारा उपाजित नहीं है, पर तेरे भाग्य का फल तो है ?"
पुत्र ने कहा
"पिताजी ! यह अकर्मण्य का भाग्य है । पुरुषार्थ करने पर व्यापार में जो लाभ होता है, वह पुरुषार्थ का भाग्य है। मुझे पुरुषार्थ का भाग्य चाहिए, आलसी का भाग्य नहीं। भाग्य का भरोसा करने वाले शेर के मुख में मृग नहीं जाता। भाग्य से यदि कहीं हिरन दीख जाए तो पुरुषार्थ करके सिंह अपने भाग्य को सार्थक करता है और हिरन का भोजन करता है। पुरुषार्थ कभी विफल नहीं होता
भाग्यं वैफल्यमायाति, नाभ्यासस्तु कदाचन ।
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