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१३४ | सोना और सुगन्ध अपने घर से चले। चारों ने ही निश्चय किया कि इस बार भी उस छाछ पिलाने वाली बुढ़िया के घर ठहरेंगे। चारों ही बुढ़िया के यहाँ पहुँचे । बुढ़िया ने चारों को देखा
और बार-बार अपनी आँखों को मला। अपना आश्चर्य व्यक्त करती हुई बुढ़िया बोली--
"क्या तुम वही चारों हो जो एक बार मेरे यहाँ ठहरे थे।"
चारों ने कहा
"हाँ माँ ! हम वही हैं। तूने हमें छाछ पिलाई थी, याद है न ?"
“याद है !” बुढ़िया बोली- "पर तुम अभी तक जिन्दा हो ?" __ चारों को बुढ़िया का कथन बुरा तो लगा, पर बुढ़िया बुरे स्वभाव की नहीं थी। उसके हृदय में उन चारों के लिए आतिथ्य-प्रेम और ममता-भाव था। चारों ने पूछा--
"माँ ! तुम ऐसा क्यों कहती हो?" बुढ़िया ने पूरी बात बताते हुए कहा
"बेटा ! मुझे क्या पता था कि उसमें काला साँप मरा पड़ा है। धोखे से ही मैंने वह जहरीली छाछ तुम्हें पिला दी।"
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