Book Title: Sona aur Sugandh
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

Previous | Next

Page 165
________________ १५६ / सोना और सुगन्ध दोनों ही बराबर हैं। लेकिन तु हम दोनों में भेद मानता है।" "कैसे ?" राजा ने पूछा। दानव-प्रतिनिधि ने बताया "राजा! तू हमेशा देवों को पहले भोजन कराता है और हम सबको बाद में खिलाता है। आगे से हम ऐसा नहीं होने देंगे। अब हम पहले खायेंगे।" राजा ने विचार किया कि यदि मैं असुरों की बात नहीं मानूंगा तो ये सभी कुपित होकर मेरे राज्य में उत्पात मचा देंगे और यदि मैं देवों को पहले नहीं खिलाऊँगा तो अच्छे-बुरे का भेद ही मिट जायेगा। सोचते-सोचते राजा ने मन-ही-मन एक युक्ति सोच ली और दानवों से कहा "दानवो ! वैसे तो तुम दोनों मेरे लिए समान हो, पर देव-दानवों के मनोभाव मैं एक अन्तर है, इसीलिए मैं उनको पहले खिलाता था। अब यदि तुम भी देवताओं जैसा विचार बना लो तो मैं हमेशा तुमको हो पहले खिलाया करूंगा।" दानव किसी भी बात में देवताओं से कम नहीं होना चाहते थे। अतः उन्होंने राजा से पूछा. "देवताओं में ऐसी कौन-सी बात है, जो हम में नहीं है ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178