Book Title: Sona aur Sugandh
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

Previous | Next

Page 174
________________ समर्पण और स्वार्थ | १६५ न्याय-सभा में न्याय चाहिए कि यह पक्षपात एक न्यायप्रिय राजा के द्वारा क्यों हुआ।" मुस्कराहट में ही राजा ने कहा"न्यायसभा में सभासदों के सम्मुख न्याय होगा।" राजा के घरेलू झगड़े का न्याय-निर्णय सुनने के लिए सभा खचाखच भरी थी। राजा ने मौन भंग किया___ "मन्त्री ! चारों रानियों के वे पत्र पढ़ो, जो उन्होंने मेरे लिए यहाँ आने से पहले लिखे थे।" मन्त्री ने बड़ी रानी का पत्र पढ़ा-- "स्वामी ! मेरे लिए हीरकहार लेते आइए।" दूसरे पत्र में कर्णफूलों की मांग थी और तोसरे पत्र में नूपुर मँगाये गये थे। मन्त्री ने सबसे छोटी रानी का चौथा पत्र पढ़ा___ "प्राणधन ! मेरे लिए आप ही सब कुछ हैं । मेरे लिए तो आप ही आयें, मैं तो मात्र आपको ही चाहती हूँ।" शिकायत करने वाली तीनों रानियों ने भी चौथी रानी का पत्र सुना। अब उन्हें स्वयमेव यह निश्चय हो गया कि हमने स्वार्थ की साधना की और छोटी रानी ने स्वयं को समर्पित किया । इसीलिए राजा ने उसे वह सब कुछ दिया, जो वे अपनी पसन्द से अपने साथ लाये थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 172 173 174 175 176 177 178