Book Title: Sona aur Sugandh
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 172
________________ २८ समर्पण और स्वार्थ एक राजा के चार रानियाँ थीं । राजा को चारों प्यारी थीं और राजा भी चारों को प्यारा था । चारों रानियों में भी सोतिया डाह नहीं था । एक बार राजा अपने मित्र राजा के बुलावे पर दूसरे देश गया । आतिथ्य सत्कार में महीनों बीत गए। इधर राजा की अनुपस्थिति में निराकार विरह-वियोग ने अपना आसन जमा लिया । रानियों ने दूत भेजा - 'आपका विरह अब नहीं सहा जाता ।' राजा ने रानियों का पत्र पढ़ा और दूत के हाथ अपना सन्देश भेजा— "अमुक तिथि को में अपनी राजधानी आ रहा हूँ । इस देश में बहुत-सी ऐसी चीजें हैं जो हमारे यहाँ ऐसी नहीं होतीं । मेरे मित्र राजा के देश में अद्वितीय आभूषण बनते हैं । यहाँ का हीरकहार देखने वाले के हृदय में बस जाता है । यहाँ के नूपुरों की झनकार बड़ी मधुर होती है और जो स्त्री यहाँ के कर्णफूल पहन लेती है तो देखने वाला यह निश्चय नहीं कर पाता कि कर्णफूल देख या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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