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अपराध एक : दण्ड चार | १४३
दिखाया। दूसरे-तीसरे का भी यही हाल था । जिस नगर के लोगों ने दिन के उजाले में उसे चोर रूप में देख लिया, उस नगर में रहना दूसरे चोर को बर्दाश्त नहीं हुआ । .... चौथे चोर की आत्मा इतनी मर गई है कि शर्म जैसी चीज उसके पास नहीं रही। शारीरिक दण्ड की कठोरता से वह दण्ड भोगते समय तो यह निश्चय कर लेता है कि अब चोरी नहीं करूँगा और जव कारागार से मुक्त होता है तो सब भूल जाता है और चोरी करते समय यही सोचता है, 'जब तक पकड़ा नहीं जाता, तब तक चोरी कर लूँ । जब पकड़ा जाऊँगा, तब देखा जायेगा ।' इसीलिए मैंने उसे यह कठोर दण्ड दिया था । "
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