Book Title: Sona aur Sugandh
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 149
________________ १४० | सोना और सुगन्ध जब तीसरे चोर की बारी आई तो राजा ने आदेश दिया--"पचास कोड़े मारकर इसे मुक्त कर दो।" राजा ने चौथे चोर को सजा सुनाई "इसमें सौ कोड़े मारो और छह महीने के लिए कारागार में बन्द कर दो।" राजा के इस अद्भुत न्याय पर सभी को आश्चर्य हुआ। प्रधानमन्त्री से न रहा गया। उसने राजा से पूछा___"प्रजापालक ! आपकी न्याय-प्रियता में सन्देह करना और गूलर में फूल ढूँढ़ना एक ही बात है। लेकिन आज के न्याय को देखकर पूरा दरबार आश्चर्यचकित है। चारों ही चोर एक से ही अपराधी थे। अपराधियों के इस पक्षपात में क्या रहस्य है ? दो चोर तो आपने यों ही छोड़ दिये । एक को पचास कोड़े की सजा दी और चौथे को सौ कोड़े भी मिले तथा छह महीने का कठोर कारावास भी। यदि चोरों के साथ-अपराधियों के साथ ऐसी उदारता बरती जायेगी तो अपराधी निश्शंक हो जाएंगे तथा अपराध और बढ़ेंगे।" राजा क्षणभर मौन रहा । पूरा दरबार कारण जानने को उत्सुक था । राजा ने कहा---- ___ "महामन्त्री ! दण्ड का उद्देश्य अपराधी को सुधारना है, उसे यातना व कष्ट देना नहीं । जो भी यातना व कष्ट दिया जाता है, वह भी सुधार के लिए ही दिया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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