Book Title: Sona aur Sugandh
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 138
________________ उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः | १२६ सामने रखी धन से भरी थैलियों की ओर संकेत करते हुए व्यापारी ने पुन: कहा "ये थैलियाँ तुम चारों के लिए हैं। चारों भाई एक-एक थाली उठा लो । प्रत्येक थैली में एक-एक लाख रुपये हैं । इन रुपयों से अपने ढंग की नई जिन्दगी प्रारम्भ करो ।” एक-एक करके तीन भाइयों ने एक-एक थैली उठा ली और चौथा भाई खड़ा देखता रहा । उसे चुपचाप खड़ा देख व्यापारी ने कहा "तुम भी उठाओ । खड़े क्यों हो ?" "नहीं, मैं नहीं उठाऊँगा ।" व्यापारी के छोटे लड़के ने दो टूक जवाब दिया । "क्यों ?" व्यापारी ने प्रश्न किया | छोटे लड़के ने बताया "पिताजी ! इस धन पर मेरा कोई अधिकार नहीं । यह धन आपकी कमाई का है ।" पिता ने पूछा "क्या पिता के धन का उपयोग पुत्र नहीं करता ?" पुत्र ने कहा " करता है । पर जब तक वह असमर्थ रहे, तब तक ।" सेठ ने आग्रह किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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