Book Title: Sona aur Sugandh
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 137
________________ २० उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः एक व्यापारी के चार पुत्र थे। घर में धन की कमी नहीं थी । अकेला व्यापारी ही इतना उपार्जन करता कि पूरा घर चैन की वंशी बजाता। चारों लड़कों का व्यापार में कोई सहयोग नहीं था। अभी उनके खाने-खेलने के दिन थे। एक दिन व्यापारी ने सोचा, 'अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ। मेरे बाद लड़कों को ही व्यापार सँभालना है । लेकिन अपने जीते-जी यह भी देख लू कि कौन-से लड़के में व्यापार चलाने की सामर्थ्य है और कौन व्यापार की जमा पूजी को भी चौपट करने वाला है। यदि चारों ही योग्य हुए तो चारों का ही अपना कार्यभार सौंप दूंगा।' यह सोच व्यापारी ने अपने चारों पुत्रों को बुलाय। और कहा "पुत्रो ! अब तक तुम मेरे अनुशासन में रहे हो । मैंने तुम चारों पर खर्च करने का अंकुश भी रखा है। आज से मैं तुम्हें स्वतन्त्र जीवन जीने की छूट देता हूँ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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