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[८. पा°४]
स्यादौ दीर्घ-हस्वौ ॥ ३३० ॥ अपभ्रंशे नानोत्यस्वरस्य दीर्घहस्त्रौ स्यादौ प्रायो भवतः -सौगा
न ढोल्ला सामला धण चम्पा-वण्णी।।
णोइ'सुवण्ण-रेह'कस-वट्टइ दिण्णी ।। आमन्ये। ५८
ढोल्ला मई तुहुं वारिया मा कुरु दीहा माणु
निदए गमिही रत्तडी दडवड होइ विहाणु । खियाम् ॥
विट्टीए' मइ भणिय तु९ मा करु बैङ्की दिहि, पुत्ति सकणी भल्लि जिवं मारइ हिंअइ पइट्टि ।
एइ ति घोडा एह थलिं एई ति निसिआ खग्ग। ___ ऐत्थु मुणीसिम जाणीअइ जो'नवि वालइ वग्ग"॥ . एवं विभक्त्यन्तरेष्वप्युदाहार्यम् ॥
स्यमोरस्योत् ।। ३३१ ॥ अपभ्रंशे अकारस्य स्यमोः परयोः उकारो भवति ॥ दहमुहू भुवण-भयंकरूँ तोसिअ-संकरुणिग्गउ रह-वरि चडिअउ चउमुहु छंमुह झाइवि'एकाहिं लाइवि'णावई दइवें घडिअउ'।
सौ पुंस्योद्वा ॥ ३३२ ॥ अपभ्रंशे पुल्लिङ्गे वर्तमानस्य नाम्नाकारस्य सौ परे ओकारी वा भवति।
अगलिअ-नेह-निवट्टाई जोअण-लक्खुवि जाउ ।
वरिस-सएणवि जो मिलइ सहि सोक्खहं सो ठाउ ॥ पुंसीति किम्।
जसि ।।
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१P नाइ. २P मई. B मइ. ३P B वारिओ. ४ B करु. ५ P तुह. B तुई ६ B किदिही. ७ B कण्णिभ. ८ A जिम्व. B जिम. ९ A हिअय. Bहीअ १० B एल्थ. ११ P जाणिअइ. १२ Bह. १३ B रहेवाडि च'. १४ A B °रो में १५A जाओ. १६ Bहा. A ठाओ.