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कर लिया, यह खुशी का विषय है। आगे बृहत्कल्प, निशीथ तथा विशेषआवश्यकभाष्य का भी अनुवाद किया जाए तो जैन आगम की बहुत बड़ी सेवा होगी, तुम यह कार्य कर सकते हो। मैंने मन ही मन यह धारणा बना ली कि मुझे गुरु के आदेशानुसार भाष्यों के अनुवाद में लग जाना है। मैं गुरुदेव का अत्यंत आभारी हूं कि उन्होंने 'अ' 'आ' से मेरी शिक्षा प्रारंभ कर मुझे इस स्थिति तक पहुंचाया। उनके प्रशिक्षण की यह आश्चर्यकारी शैली है कि वे ग्रंथ का आद्योपान्त अध्ययन न कराकर शिष्य की कर्मजा और पारिणामिकी बुद्धि को तीक्ष्ण करने का प्रयत्न करते हैं और तब शिष्य पठित या अपठित ग्रंथों को भी समझने-बूझने लग जाता है। आज मैं दीक्षा में ५५ वर्ष पूर्ण कर ५६वें वर्ष में चल रहा हूं। दीक्षा के प्रथम दिन से आज तक गुरुदेव का वरद हस्त मेरे शिर पर रहा है, है और रहेगा। श्री चरणों में वंदना........"
जब युवाचार्यश्री और महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी को यह ग्रंथ दिखाया तो युवाचार्यश्री ने मुस्कुरा कर इसकी अनुमोदना की और साध्वीप्रमुखाश्री ने यत्र-तत्र दृष्टिपात कर उत्साहवर्धक वाणी से इसकी सराहना की। दोनों विभूतियों के इस प्रमोद भाव के प्रति अंतः श्रद्धाभिव्यक्ति। कृतज्ञता ज्ञापन
इस महान् भाष्य का अनुवाद मुझ 'अकेले' को करना था। लगभग ५ हजार श्लोक और यात्रा। यात्रा और अनुवाद कार्य का कोई ताल-मेल नहीं था। परन्तु मनोबल को शिथिल नहीं होने दिया और एक दिन वह कार्य संपूर्ति को प्राप्त हो गया। पांडुलिपि तैयार हो गई। अब......"
यह प्रश्न मेरे वश का नही था। इसका समाधान किया मुनि जितेन्द्रकुमारजी ने। आगे का सारा कार्य उन्होंने संभाला और रात-दिन एक कर वे इस कार्य में जुटे रहे। लगभग चार सौ पृष्ठों की फेर कॉफी तैयार हो गई। मुझे अंतिम निरीक्षण करना था। मैंने किया और उनके सुझावों के अनुसार यत्र-तत्र संशोधन-परिवर्धन भी किया। यह सारा कार्य मेरे बलबूते से बाहर था, परन्तु उन्होंने इसे मनोयोगपूर्वक संचालित कर ग्रंथ तैयार किया। मैंने देखा, इस कार्य की संलग्नता से उनकी दक्षता बढ़ी है और अन्यान्य कार्य करने का उत्साह वृद्धिंगत हुआ है।
मुनि राजेन्द्रकुमारजी मेरे अनन्य सहयोगी हैं। वे संस्कृत व्याकरण के भगीरथ कार्य में लगे हुए हैं। मेरे इस कार्य में वे कायिक सहयोग नहीं दे सके, परन्तु उनका मानसिक और वाचिक सहयोग सदा मिलता रहा है। सौसौ साधुवाद।
मुनि सुमेरमलजी 'सुदर्शन' तथा मुनि धनंजयजी ने समय-समय पर कार्य की सराहना कर मेरे अशिथिल श्रमउत्साह को और अधिक प्रज्वलित किया। साधुवाद।
श्री किशन जैन के कम्प्युटर विभाग में कार्यरत श्री प्रमोद कुमार तथा सूरजभान ने मनोयोगपूर्वक इस कार्य को शीघ्र संपन्न करने में अपना श्रम लगाया है।
-मुनि दुलहराज
जलगांव (महाराष्ट्र) मर्यादा महोत्सव १ जनवरी २००४
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