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प्रस्तुति
आगमों का विभाग
प्राचीनकाल में आगमों के दो भेद विभाग थे-अंग तथा उपांग। उत्तरवर्ती काल में उनके चार विभाग किए गए-अंग, उपांग, मूल और छेद। वर्तमान में यही विभाग प्रचलित है। उनमें ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल और चार छेद तथा एक आवश्यक ये बत्तीस आगम हैं। व्याख्या साहित्य
आगमों पर व्याख्याएं लिखी गईं। उनमें मुख्य चार हैं-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका। दीपिका, जोड़ आदि और अनेक प्रकार भी प्राप्त होते हैं। परन्तु ये चार ही मुख्य हैं। नियुक्तियों के पश्चात् भाष्यों का प्रणयन हुआ। भाष्यों में विशेषआवश्यकभाष्य का प्रधान स्थान है। छेद सूत्रों पर भाष्य लिखे गए। निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प इन तीनों के भाष्य और नियुक्तियों का सम्मिश्रण हो गया। आज यह एक अहंप्रश्न है-भाष्य गाथाओं और नियुक्ति गाथाओं का पृथक्करण। नियुक्तियां भी प्राकृत भाषा में पद्यमय हैं और भाष्य गाथाएं भी प्राकृत में पद्यमय हैं। हमने व्यवहारभाष्य की नियुक्ति गाथाओं और भाष्य गाथाओं के पृथक्करण का प्रयास किया है और वह विश्व भारती से प्रकाशित 'व्यवहारभाष्य' सन् १९९६ में स्फुट रूप से परिलक्षित है। हमारे पृथक्करण के अनुसार भाष्य के साथ ५७२ गाथाएं नियुक्ति की हैं। यह अंतिम संख्या नहीं है। हमने जिन कसौटियों के आधार पर इनका पृथक्करण किया है, वह स्वतंत्र प्रयत्न है।
__ भाष्य की मूल गाथाएं हैं ४६९४। इनके साथ हस्तलिखित प्रतियों तथा टीका के आधार पर भी २७ गाथाएं जुड़ी हैं। इस भाष्य के प्रणयिता हैं संघदासगणि, जिन का अस्तित्व काल है विक्रम की पांचवी-छठी शताब्दी। ये जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण से पूर्ववर्ती हैं। हम इस विषय की विस्तृत चर्चा 'व्यवहारभाष्य' (मूलपाठ के संस्करण) में कर चुके है। उसमें बृहद्भूमिका तथा संपादकीय में अनेक विषयों की विशद चर्चा है। मैंने मूलपाठ उसी संस्करण से लिया है। उस संस्करण के मूलपाठ का संपादन अतिश्रमपूर्वक समणी कुसुमप्रज्ञा ने किया है। मैं भी उस संस्करण के संपादन में संलग्न रहा। हमने सम्मिलित प्रयास कर उस संस्करण को जितना उपयोगी बना सकते थे, उतना उपयोगी बनाया है। उसमें २३ परिशिष्ट हैं। इस संस्करण में विषयानुक्रम तथा गाथानुक्रम उसी से लिया है। हिन्दी अनुवाद
मूलपाठ के संपादन के पश्चात् हिन्दी में अनुवाद करने का विचार आया। अनेक साधु-साध्वियों ने कहा कि मूलपाठ उतना उपयोगी नहीं होता, जितना अनुवाद सहित मूलपाठ उपयोगी होता है। यह स्पष्ट है कि छेदसूत्र प्रत्येक व्यक्ति के लिए पठनीय या मननीय नहीं होते। वे केवल साधु-साध्वियों के प्रायश्चित्तों से संबंधित हैं। इसलिए उनके लिए सानुवाद संस्करण ही उपयुक्त है। अनुवाद को मूलस्पर्शी रखने का प्रयत्न किया है। परन्तु यत्र-तत्र अर्थ की स्पष्टता के लिए वृत्ति के आधार पर विस्तार भी किया है। यत्र-तत्र टिप्पण भी लिखे गए हैं। विचक्षण वृत्तिकार मलयगिरि ने कुछेक श्लोकों के अर्थ-विकल्पों को विस्तार से उल्लिखित कर उनका अर्थ स्पष्ट किया है। अंत में
मैंने पूरे भाष्य का अनुवाद 'अहिंसा यात्रा' के प्रथम वर्ष में किया है। बीदासर चातुर्मास में इसका प्रारंभ कर अहमदाबाद चातुर्मास के प्रारंभ काल में इसे पूर्ण कर लिया। जब मैंने अपनी पांडुलिपि आचार्यश्री को निवेदित की तो वे बहुत प्रसन्न हुए और अहोभाव के साथ कहा कि यह बड़ा प्रयत्न हुआ है। तुमने यह कार्य १२-१३ महिनों में संपन्न
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