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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सूत्रे 'तत्'शब्दलोपं कृत्वा निर्देशः कृतः, एवं च विग्रहः कर्त्तव्यः- गुणविशेषाश्च गुणविशेषाचेति गुणविशेषाः तदाश्रयश्चेति गुणविशेषाश्रयः, समाहारद्वन्द्वश्वायम् । “लोकाश्रयत्वाद् लिङ्गस्य" [२-२-२९ महाभाष्ये पृ० ४७१ पं०८] इति नपुंसकलिङ्गाऽनिर्देशः । तेनायमर्थो भवति योऽयं गुणविशेषाश्रयः सा व्यक्तियोच्यते मूर्तिश्चेति । तत्र यदा द्रव्ये मूर्तिशब्दस्तदाऽधिकरणसाधनो द्रष्टव्यः - मूर्छन्त्यस्मिन्नवयवा इति मूर्तिः, यदा तु रूपादिषु तदा कर्तृसाधनः - मूर्छन्ति द्रव्ये समवयन्तीति रूपादयो मूर्तिः । व्यक्तिशब्दस्तु द्रव्ये कर्मसाधनः रूपादिषु करणसाधनः [२-२-६८ न्या०वा० पृ० ३३२ पं० ३.२४ द्रष्टव्या]
भाष्यकारमतेन च यथाश्रुति सूत्रार्थः- गुणविशेषाणामाश्रयो द्रव्यमेव व्यक्तिर्मूर्तिश्चेति तस्येष्टम् । यथोक्तम् - "गुणविशेषाणां रूप-रस-गन्ध-स्पर्शानाम् गुरुत्व-द्रवत्व-घनत्व-संस्काराणाम् अव्यापिनश्च परिणामविशेषस्याश्रयो यथासम्भवं तद् द्रव्यं मूर्तिः मूर्छितावयवत्वात्" [न्यायद० भा० पृ० २२४]
आकृतिशब्देन प्राण्यवयवानां पाण्यादीनाम् तदवयवानां चाङ्गुल्यादीनां संयोगोऽभिधीयते । तथा च सूत्रम् “आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या" [न्यायद० २-२-६७] इति ।
उत्तर :- यहाँ सूत्र में 'तत्' शब्द का लोप कर के 'व्यक्ति: गुणविशेषाश्रयः' ऐसा कहा है, इस का मतलब यह है कि यहाँ पूरे समास का विग्रह इस प्रकार करना है - 'गुणविशेषाश्च गुणविशेषाश्च इति गुणविशेषा:' यह एकशेष समास और 'गुणविशेषाश्च तदाश्रयश्च इति गुणविशेषाश्रयः' ऐसा समाहारद्वन्द्व समास । समाहार द्वन्द्व समास करने से 'गुणविशेषाश्रयौ' ऐसा द्विवचन करना नहीं पडता । एकवचन ही संगत है । किंतु उस को नपुंसकलिंग होना चाहिए फिर भी पुल्लिंग किया है उसका कारण यह है कि व्याकरणमहाभाष्य में कहा है कि शब्दों का लिंगप्रयोग लोकाश्रित है । इसलिये लोक का अनुसरण करके यहाँ पुल्लिंगप्रयोग करने में कोई बाध नहीं है।
व्यक्तिशब्द की व्याख्या का फलितार्थ यह हुआ कि कर्म आकृतिभिन्न गुण और उसका जो आश्रय (द्रव्य) ये सब व्यक्ति भी कहे जाते हैं और मूर्ति भी कहे जाते हैं । द्रव्य के अर्थ में जब मूर्ति शब्द लेते हैं तो उसकी व्युत्पत्ति अधिकरण अर्थ में की जाती है - 'जिस में अवयवों का मूर्छन यानी संमिलन होता है वह मूर्ति' ! जब रूपादि गुण या कर्म के अर्थ में लेंगे तब कर्ता अर्थ में उसकी व्युत्पत्ति ऐसी होगी - द्रव्य में जो मूर्छित होने वाले यानी समवेत हो कर रहने वाले हैं वे रूपादि मूर्ति हैं । व्यक्तिशब्द का भी जब द्रव्यरूप अर्थ लेंगे तो कर्म अर्थ में उसकी व्युत्यत्ति होगी - 'व्यज्यते असौ = जो (रूपादि से) अभिव्यक्त होता है वह व्यक्ति' । जब रूपादि अर्थ लेगें तो करण अर्थ में उसकी व्युत्पत्ति होगी 'व्यज्यते अनेन' =जिस से (द्रव्य) व्यक्त होता है वह रूपादि ।
★ भाष्यकारमत से व्यक्ति सूत्र का पदार्थ ★ 'व्यक्ति: गुणविशेषाश्रयो मूर्ति:' इस सूत्र का वार्त्तिककारसंमत अर्थ दिखाया, अब भाष्यकार के मत से जो उस का यथाश्रुत यानी शब्दानुसारी अर्थ है वह दिखाते हैं - गुणविशेषों का जो आश्रय होता है वही व्यक्ति है और उसी को मूर्ति भी कहते हैं - ऐसा भाष्यकार का मत है । भाष्य में ही कहा है कि रूप-रस-गन्ध-स्पर्श, गुरुत्व द्रव्यत्व-घनत्व-संस्कार तथा अव्यापक परिमाणविशेष ये गुणविशेष हैं और उस का जो यथासंभव आश्रय हो उदा० रूप-रसादि का पृथ्वी आदि - यह आश्रय द्रव्य है और उसी में अवयवों का मूर्छन (संमीलन)
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