Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 415
________________ ३९६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् व्यवस्थापको नान्यथाभूतः, अन्यथा अचेष्टावतोपि चेष्टावत्तया शब्दानुविद्धेध्यक्षप्रत्यये प्रतिभासस्याभ्युपगमे तत्प्रत्ययस्य निर्विषयतया भ्रान्तस्यापि वस्तुव्यवस्थापकत्वे सर्वः प्रत्ययः सर्वस्यार्थस्य व्यवस्थापकः स्यादित्यतिप्रसंगः । तन घटनसमयात् प्राक् पश्चाद् वा 'घटः' तव्यपदेशमासादयतीत्येवंभूतनयमतम् । उक्तं च [ ] 'एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तनोपपयते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वादेवंभूतोभिमन्यते ॥ इति । तत् स्थितमेतत् ऋजुसूत्रादयः पर्यायास्तिकस्य विकल्पा इति । अस्याच गाथायाः सर्वमेव शास्त्रं विवरणम् । कर क्रियाभेद से भी वस्तुभेद स्वीकार करना चाहिये । इस प्रकार वह वस्तुभेदक क्रिया जब वस्तु में आविष्ट होती है तभी उस क्रियारूप निमित्त के आधार पर क्रियावाचक शब्द-प्रयोग के लिये वह वस्तु योग्य बनती है, अन्यकाल में नहीं । यदि पचन आदि क्रिया के अभाव में भी किसी के लिये यथा तथा 'पाचक' आदि शब्दप्रयोग उचित माना जाय तब तो फिर पचन आदि क्रियाशून्य हर किसी चीज के लिये भी यथा तथा 'पाचक' आदि शब्द प्रयोग में औचित्यप्रवेश का अतिप्रसंग हो सकता है । कैसे यह देखिये- जब 'घटते' -घटनक्रिया से आविष्ट है तभी वह घटशब्दवाच्य है, किन्तु 'घटितवान्' यानी भूतकालीन घटनक्रिया का आधार अथवा 'घटिष्यते' यानी भाविकालीन घटनक्रिया का आधार 'घट' शब्द प्रयोग के लिये योग्य नहीं है, क्योंकि ऐसे तो सभी वस्तु में घटता (घटशब्दवाच्यता) की आपत्ति होगी । सच देखा जाय तो, वस्तु जब चेष्टात्मक क्रिया- जो कि 'घट' धातु का वाच्यार्थ है, से आविष्ट होती है तभी नेत्रादि के संनिकर्ष से 'ये पदार्थ सचेष्ट हैं' ऐसी शब्दोल्लेखानुविद्ध यथार्थ प्रतीति होती है । यथावस्थितार्थ प्रतीति ही वस्तु की व्यवस्थाकारक हो सकती है, अयथार्थप्रतीति नहीं अन्यथा, चेष्टाशून्य पदार्थ का सचेष्टरूप से शब्दानुविद्ध प्रत्यक्षप्रतीति में यदि प्रतिभास होता है ऐसा मानेंगे तो वह प्रतीति विषयरहित होने से भ्रान्त होगी और भ्रान्तप्रतीति को यदि वस्तु-व्यवस्थाकारक मानेंगे तो हर कोई प्रतीति हर एक वस्तु की व्यवस्थापक बन जाने का अतिप्रसंग होगा । इस से बचने के लिये एवंभूतनय कहता है कि घटन (चेष्टा) काल के पहले या बाद में वस्तु कभी 'घट' शब्दप्रयोग की वरमाला के लिये योग्य नहीं होती । कहा है ‘एवंभूत का अभिमत ऐसा है- वस्तु सदा के लिये एक शब्द से वाच्य नहीं होती, क्योंकि क्रियाभेद से वस्तु भिन्न होती है।' ___ उक्त रीति से सभी ऋजुसूत्रादि चार नय उत्तरोत्तर भेददृष्टि को विशाल बना कर बारीक पर्यायों को छाँटते रहते हैं इसलिये वे सब पर्यायास्तिकनय के ही विकल्प यानी प्रकार अथवा उपभेद हैं- यह सुनिश्चित है। ___ व्याख्याकार कहते हैं कि मूल चौथी गाथा से लेकर पूरा सम्मतिग्रन्थ इस तित्थयरवयण० तृतीयगाथा का ही विवरण-विस्तार रूप है, क्योंकि अग्रिम मूल ग्रन्थ में बहुधा द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक नयों के भेदोपभेद का ही विवेचन- व्युत्पादन किया जायेगा । अर्थात् उन नयों के नाम लिये विना भी उन के मन्तव्यों का विमर्श किया जायेगा। [तृतीयगाथाविवरण समाप्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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