Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 419
________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सर्व सन्मात्रतया संगृह्णन् संग्रहः शुद्धा द्रव्यास्तिकप्रकृतिरिति स्थितम् । तामेवाशुद्धां 'पडिरूवं पुण' इत्यादिगाथापश्चार्द्धन दर्शयत्याचार्यः, प्रतिरूपं = प्रतिविम्ब प्रतिनिधिरिति यावत् । विशेषेण घटादिना द्रव्येण संकीर्णा सत्ता, पुनरिति प्रकृतिं स्मारयति । तेनायमर्थः विशेषेण-संकीर्णा सत्ता प्रकृतिः स्वभावः वचनार्थनिश्चयः इति, हेयोपादेयोपेक्षणीयवस्तुविषयनिवृत्तिप्रवृत्त्युपेक्षालक्षणव्यवहारसम्पादनार्थमुच्यत इति वचनम् तस्य 'घटः' इति विभक्तरूपतया 'अस्ति' इ. त्यविभक्तात्मतया प्रतीयमानो व्यवहारक्षमः अर्थस्तस्य निश्चयः निर्गतः = पृथग्भूतः चयः = परिच्छेदः, तस्य इति द्रव्यास्तिकस्य व्यवहारः इति लोकप्रसिद्धव्यवहारप्रवर्तनपरः नयः । इसीलिये पातंजलमहाभाष्यकारादि शब्दशास्रवेत्ताओं ने यह कहा है कि जहाँ ('श्वेत अश्व" आदि स्थलों में) विशेष क्रियासूचक क्रियापद का श्रवण नहीं होता वहाँ 'भवन्ती' अर्थ (यानी सत्तार्थ) सूचक प्रथमपुरुषवाला 'अस्ति' पद अप्रयुक्त होने पर भी अध्याहार से- होता है- यह समझा जाता है ।" यहाँ अध्याहार से 'अस्ति' का भान तभी हो सकता है यदि पदार्थ अस्त्यर्थ सत्ता का अव्यभिचारी हो । अव्यभिचार का स्वीकार करने पर तो सत्ता के आवेश से अश्वादि अर्थ सत्तात्मक है यह फलित हो जाता है । यदि वह सत्तारहित होगा तो अपने स्वरूप से च्युत हो जायेगा । अतः निष्कर्ष यह है कि 'सत्' मात्र ही प्रत्यक्ष का अथवा शब्द का प्रतिपाद्य विषय होता है जिस में सकल विशेष अन्तर्भूत हुए रहते हैं जैसे कि 'पेया' आदि शब्द से सिर्फ पानकद्रव्य का ही भान होता है, जिस पानकद्रव्य में अभिन्नरूप से मधुररसादि धर्म अवस्थित होते हैं। यदि कहें कि- 'घट-पटादि भेदों का भी स्फुट प्रतिभास प्रत्यक्ष या शब्द से होता है तो अर्थसामान्य यानी सत्तामात्र का ही प्रतिभास कैसे माना जाय ?'- तो उत्तर यह है कि जैसे 'तिमिर' रोग से आक्रान्त नेत्र वाले पुरुष को चन्द्रमंडल देख कर अनेकता का यानी भेद का मिथ्या प्रतिभास होता है वैसे ही 'प्रतिपादक अपने अपने शास्त्रों से जिन के अन्त:करण बहुधा वासित हो जाता हैं उनको भेद का मिथ्या प्रतिभास होता है, वह वास्तव में भेद- स्थापक नहीं होता है । ___ इस प्रकार सभी भेदों का तिरस्कार कर के सभी को सिर्फ सत्तामात्र के रूप में संगृहीत करने-वाला संग्रहनय शुद्ध द्रव्यास्तिक प्रकृति है- यह सिद्ध होता है। ★ अशुद्ध द्रव्यार्थिक - व्यवहारनय का अभिप्राय ★ व्याख्याकार अब मूल गाथा के उत्तरार्ध का शब्दार्थ करके व्यवहारनय का अभिप्राय दिखा रहे हैं- द्रव्यास्तिक नय की अशुद्धप्रकृति पडिरूवं पुण... इत्यादि उत्तरार्ध से बतायी जा रही है । [मूल गाथा के आदर्शों में 'पडिरूवे' पाठ होने पर भी व्याख्या के आदर्शों में 'पडिरूवं' पाठ है ।] 'पडिरूव' प्राकृतभाषा का संस्कृतरूप 'प्रतिरूप' होता है, उस का अर्थ है प्रतिबिम्ब अथवा प्रतिनिधि । सत्ता व्यापक रूप से सर्वगत है, उसके जो घटादि विविधरूप हैं, विशेषत: उन घटादि द्रव्यों की सत्ता व्यापक न हो कर कुछ संकीर्ण बन जाती है । यहाँ 'पुनः' - शब्द द्रव्यास्तिकनय की 'प्रकृति' का उल्लेख कर रहा है । वाक्यार्थ ऐसा यहाँ फलित होता है कि घटादिविशेष से संकीर्ण बनी हुई सत्ता यह जिसकी विषयभूत प्रकृति यानी स्वभाव है वैसा जो वचनार्थनिश्चय, यही उसका यानी द्रव्यास्तिक का व्यवहार है । वचनार्थनिश्चय पद में वचन से यहाँ अभिप्रेत है हेयवस्तुविषयक निवृत्ति, उपादेय वस्तुविषयक प्रवृत्ति और उपेक्षणीयवस्तु विषयक उपेक्षा - इन तीन व्यवहारों के प्रवर्तन के लिये जो उच्चारित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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