Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 418
________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-४ ३९९ पि । तथाहि - 'घटः' इति विशेषणम् ‘सन्' इति विशेष्यम् अत्र द्वयेनापि चाभावविपरीतेन भाव्यम् । न ह्यन्यथा तद् विशेषणम् नापि तद् विशेष्यं स्यात् निरुपाख्यत्वात् अत्यन्ताभाववत् । यदि पुनरभावविपरीतं तदिष्यते, विशेषण-विशष्ययोः कथं न भावरूपता ? तेन यदेव घटस्य भावो घटत्वं तदेव 'घटः', यच्च सतो भावः सत्त्वं तदेव 'सन्' इति सर्वत्र संग्रहाभिप्रायतः प्ररूपणाविषयो भाव एव । उक्तं चैतत् समयसद्भावमभिधावता अन्येनापि, [वाक्यपदीय- द्वि० का० श्लो० ११९] अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । अपूर्वदेवताशब्दैः(?स्वर्ग;) सम(प्रा?)माहुर्गवादिषु ॥ घटादीनां न चाकारात्(?न्) प्रत्यायति वाचकः । वस्तुमात्रनिवेशित्वात् तद्गतिर्नान्तरीयकैः ॥ [वाक्यपदीय द्वि० का० श्लो० १२३] अत एव “यत्र विशेषक्रिया नैव श्रूयते तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषेऽप्रयुज्यमानोप्यस्तीति गम्यते" [ ] इत्युक्तं शब्दसमयवेदिभिः । अवगतिश्चैवं युक्ता यदि सत्तां पदार्थो न व्यभिचरेत, अव्यभिचारे च तदावेशात् तदात्मकतैव सत्तापरित्यागे वा स्वरूपहानमिति सन्मात्रमेवाध्यक्षस्य शब्दस्य वा विषयः अन्तर्नीताशेषम् अपृथग्व्यवस्थापितमधुरादिरसपानकद्रव्यवत् । भेदप्रतिभासस्तु भेदप्रतिपादकागमोपहतान्तःकरणानां तिमिरोपप्लुतदृशामेकशशलांछनमण्डलस्यानेकत्वावभासनवत् असत्य इति सर्वभेदान् अपहृवानः वाचक हैं । कैसे यह देखिये- 'घटः' यह विशेषण है 'सन्' यह विशेष्य है, ये दोनों अभाव यानी असत् से विपरीत होने चाहिये, अन्यथा न तो घट विशेषण हो सकेगा और न 'सत्' विशेष्य हो सकेगा, क्योंकि अत्यन्ताभाव जैसे असत् यानी निरुपाख्य होता है वैसे वे विशेषण-विशेष्य भी अत्यन्ताभावविपरीत नहीं होंगे तो निरुपाख्य बन जाने से 'घट: सन्' वाक्य के वाच्य नहीं रहेंगे । यदि वे अभावविपरीत हैं ऐसा मान लिया जाय तब तो विशेषण-विशेष्य दोनों 'भाव'रूप नहीं होंगे तो क्या होंगे ? अत: 'घटस्य भावो' (घट का भाव) घटत्व वही 'घट:' पद का अर्थ है और सत् का भाव सत्त्व वही 'सन्' पद का अर्थ है, इसलिये पूरा वाक्यार्थ भी भावरूप ही है । संग्रहनय के अभिप्राय से इस प्रकार भाव ही प्ररूपणा का विषय है । ★ अन्यदार्शनिकों का अस्त्यर्थवाचकता में समर्थन * शास्त्रों के सद्भाव को अभिमुख बने हुये अन्यजनों ने यानी भर्तृहरि ने अपने वाक्यपदीय ग्रन्थ के द्वितीय काण्ड की ११९ और १२३ वीं कारिका से इसी तथ्य का निर्देश किया है - ____“सभी शब्दों के वाच्य का स्वरूप 'अस्ति' अर्थ है (अर्थात् आकारविशेषपरामर्शशून्य अर्थसामान्य ही शब्दमात्र का वाच्य है ।) 'गो' आदि पदों में भी वाच्य अर्थसामान्य अपूर्व, देवता, स्वर्ग पदार्थों के तुल्य ही होता है । (अर्थात् अपूर्वादिपदों से जैसे आकार विशेष का भान नहीं होता सिर्फ अतीन्द्रिय अर्थसामान्य का ही भान होता है वैसे ही 'गो' आदि पदों में भी होता है । फिर भी 'गो' आदि पदों से जो आकारविशेष 'चतुष्पदादि' का भान होता है वह तो पदश्रवण से अवगत अर्थसामान्य के अविनाभावी होने से स्मृति द्वारा होता है।" ___"वाचक शब्द, घटादि के प्रसिद्ध आकारविशेष का भान नहीं कराता, क्योंकि घटादिवाचक शब्द वस्तुमात्रनिवेशी यानी पृथुबुनोदराकारस्वरूप अर्थसामान्य मात्र में ही संकेतित होते हैं । फिर भी (वहाँ जलाहरणशक्ति आदि) विशेषाकारों का जो भान होता है वह उनके अर्थसामान्य के अविनाभावी होने के कारण होता है।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436