Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 378
________________ ३५९ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ क्रियते यस्योत्पादको हेतुर्विद्यते, यस्य तु शशशृंगादेर्नास्त्युत्पादकः तन्न क्रियते इति अनेकान्त एव, यतो न सर्व सर्वस्य कारणमिष्टम् । न च 'यद् असत् तत् क्रियते एव' इति व्याप्तिरभ्युपगम्यते; किं तर्हि ? यद् विधीयते उत्पत्तेः प्राक् तत् असदेवेत्यभ्युपगमः । अथ तुल्येऽपि असत्कारित्वे हेतूनां किमिति सर्वः सर्वस्याऽसतो हेतुर्न भवतीत्यभिधीयते ? असदेतत् - भवत्पक्षेप्यस्य चोद्यस्य समानत्वात् । तथाहि - तुल्ये सत्कारित्वे किमिति सर्वः सर्वस्य सतो हेतुर्न भवतीत्यसत्कार्यवादीनाप्येतदभिधातुं शक्यत एव । न च भवन्मतेन किंचिदसदस्ति येन तन्न क्रियते । न च कारणशक्तिनियमात् सदपि नभोऽम्बुरुहादि न क्रियते इत्युत्तरमभिधानीयम् , इतरत्राप्यस्य समानत्वात् । तदुक्तम् - दोषाभासरोपण है इस बात को उजागर करने के लिये किंचित् प्रयास उचित है - यह जो कहा था [२९९-३२] 'असत् स्वभावरहित होने के कारण उस का करण अशक्य है ।' यह कथन युक्तिसिद्ध नहीं है । हम असत् का सत्-करण नहीं मानते किन्तु कारणों के व्यापार से वस्तुस्वभाव का निष्पादन मानते हैं और वस्तुस्वभाव निरुपाख्य नहीं होता । यदि कहें कि - 'उत्पत्ति के पहले तो वह भावि में निपजनेवाला वस्तुस्वभाव स्वभावशून्य ही होता है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जो उस समय नहीं होता, वह तो स्वभावशून्य भी नहीं होता । तात्पर्य, आप उत्पन्न वस्तु को उद्देश कर के उत्पत्ति के पहले स्वभावशून्य होने की बात करते हैं किन्तु उत्पत्ति के पहले जो हस्ती में ही नहीं उस के लिये 'वह स्वभावयुक्त था या स्वभावशून्य' इस चर्चा को भी अवकाश नहीं । ऐसा शक्य ही नहीं है कि जो अब स्वभावयुक्त है वह कभी स्वभावशून्य हो कर भी हस्ती में हो । स्वभावशून्य का मतलब ही यह है कि वस्तुस्वभाव का निषेध, वह स्वभावयुक्त वस्तु को उद्देश कर के कैसे हो सकता है ? जिस की उत्पत्ति की जा रही है वह उत्पत्ति के पूर्व, हस्ती में ही नहीं है तो 'स्वभावशून्य हो कर तब होती है ऐसा कैसे सिद्ध होगा ? यदि कहें कि – 'हम नीरूप वस्तुविरह को उद्देश कर के नि:स्वभावत्व हेतु से उस के कारण की अशक्यता को सिद्ध करेंगे' - तो इस में इष्टापत्ति होने से सिद्धसाध्यता दोषप्रसंग होगा, क्योंकि वस्तुविरह जो कि शशसींगतुल्य तुच्छ है उस का कारण (= निष्पादन) किसी भी रीति से शक्य नहीं मानते हैं, हम तो वस्तुविरह का नहीं वस्तुस्वभाव का निष्पादन मानते हैं । ★ असत्-अकरण की सिद्धि में हेतु साध्यद्रोही ★ '(जो) असत् (है उस) का करण शक्य नहीं है क्योंकि वह स्वभावरहित है' इस प्रयोग में हेतु साध्यद्रोही है । यहाँ जिस का करण शक्य है वह विपक्ष है, विपक्ष में स्वभावशून्यत्व हेतु के रह जाने में कोई बाधक दिखाना चाहिये वह तो अब तक नहीं दिखाया है, इसलिये विपक्षवृत्तित्व में बाधक न होने के कारण हेतु संदिग्धसाध्यद्रोही सिद्ध होता है । असत् (पक्ष) स्वयं ही यहाँ विपक्ष भी हो सकता है, कैसे यह देखिये, असत् होने पर भी जिस के उत्पादक हेतु हस्ती में नहीं है उस शशसींग आदि का करण अशक्य है किन्तु असत् होने पर भी जिस के उत्पादक हेतु विद्यमान हो उस का करण शक्य हो सकता है, क्योंकि उत्पादक कारणों में सर्व असत् के उत्पादन की साधारण शक्ति नहीं होती किन्तु नियतरूप से कुछ ही असत् के उत्पादन की शक्ति होती है, सब तो सब का कारण नहीं होता । अत: शक्यकरणवाला असत् ही यहाँ विपक्ष हुआ, उस में स्वभावशून्यता हेतु रहता है इसलिये साध्यद्रोह स्पष्ट है । हम ऐसा तो कोई नियम नहीं मानते कि 'जो असत् है उस का करण होता ही है । हम तो यह मानते हैं कि 'जिस का उत्पादन किया जाता है वह उत्पत्ति के पहले असत् ही होता है।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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