Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 402
________________ द्वितीयः खण्डः का० - ३ चनात् । अथ द्वितीयः पक्षोऽङ्गीक्रियते तदा हेतोर्विरुद्धतालक्षणो दोषः विकार्युपकारित्वेन चक्षुरादीनां साध्यविपर्ययेण दृष्टान्ते हेतोर्व्याप्तत्वप्रतीतेः । तथाहि - अविकारिणी अतिशयस्याधातुमशक्यत्वात् शयनाऽऽसनादयोऽनित्यस्यैवोपकारिणो युक्ता न नित्यस्येति कथं न हेतोर्विरुद्धता ? यदि पुन: सामान्येन आधेयानाधेयातिशयविशेषमपास्य पारार्थ्यमात्रं साध्यत इत्ययं पक्षः कक्षीक्रियते तदापि सिद्धसाध्यतैव, चक्षुरादीनां विज्ञानोपकारित्वेनेष्टत्वात् । न च चित्तमपि साध्यधर्मित्वेनोपात्तमित्यपरस्य तद्व्यतिरिक्तस्य परत्वमत्राभिप्रेतम्, चित्तादिव्यतिरेकिणोऽपरस्याविकारिण उपकार्यत्वाऽसम्भवात् चक्षूरूपाऽऽलोकमनस्काराणापरचक्षुरादिकदम्बकोपकारित्वस्याऽन्यायप्राप्तत्वात् । विज्ञानस्य वा अनेककारणकृतोपकाराध्यासितस्य संहतत्वं कल्पितमविरुद्धमेवेति नात्र साध्ये हेतोरप्यसिद्धता संगच्छते ? तन सांख्योपकल्पितचैतन्यरूपस्य नित्यस्यात्मनः कुतश्चित् सिद्धिः । तन्न अशुद्धद्रव्यास्तिकमतावलम्बिसांख्यदर्शनपरिकल्पितपदार्थसिद्धिरिति A है, चाहे वह अन्य कोई भी हो । "प्रथम पक्ष अयुक्त है, क्योंकि उस में सिद्धसाध्यता दोष की गन्ध है । हम भी मानते हैं क्षणिक चैतन्यमय विज्ञान पर है, उस को उपकृत करने के लिये ही चक्षु आदि है । बौद्धग्रन्थ भी ऐसा कहा गया है कि 'चक्षु से एवं रूपादि के आलम्बन से चाक्षुष विज्ञान उत्पन्न होता है' । Bद्वितीय पक्ष मानेंगे तो उस में हेतु में विरुद्धता दोष लगता है । चक्षु आदि तो 'विज्ञान के विकारी और उपकारी है' इस तथ्य की सिद्धि 'संघात' हेतु से होती है, दृष्टान्त में अविकारी - अनुपकार्य साध्यरूप पर विपरीत विकारी एवं उपकारी पर रूप साध्य के साथ व्याप्ति धारण करने वाला हेतु विरूद्ध क्यों नहीं होगा ? जैसे देखिये - अविकारी पदार्थ में तो किसी नये संस्कार का आधान शक्य नहीं होता, अतः दृष्टान्तभूत (संघातमय) शय्या - आसनादि अनित्य के ही उपकारी बने यह सयुक्तिक है, न कि नित्य के । हेतु विरुद्ध क्यों नहीं हुआ ? यदि तीसरे विकल्प में संस्कारयोग्य या संस्कार - अयोग्य आदि को छोड कर सिर्फ चक्षुआदि में परार्थता ही सिद्ध करने का अभिप्राय रखते हो तब सिद्धसाध्यता और जोर मारेगी क्योंकि हम मानते ही हैं। कि चक्षु आदि पर के लिये, यानी विज्ञान के उपकार के लिये हैं । ३८३ यदि कहें कि - 'चक्षुआदि पक्ष में चित्त (यानी विज्ञान) का भी अन्तर्भाव है, अतः यहाँ जो अन्यार्थकत्व सिद्ध करना है उस में चित्त से भी अन्य की सिद्धि अभिप्रेत है " तो कहना पडेगा कि चित्तादि से भिन्न हो ऐसे किसी अविकारी की हस्ती यदि अभिप्रेत होगी तो उस में उपकार्यता का सम्भव ही नहीं है, तथा चक्षु-रूप- आलोक-मनस्कार अपने से भिन्न अन्य चक्षुआदिवर्ग का उपकारी हो (यानी अन्य उपकार्य चक्षुआदि सिद्ध हो ) यह भी संभव नहीं है । दूसरी ओर, 'विज्ञान में संहतत्व यानी संघातमयता न होने से, विज्ञान का पक्ष में अन्तर्भाव करने पर हेतु भागासिद्ध हो जायेगा, इस लिये परार्थता का अनुमान ही अशक्य है', ऐसा कहने से भी छूटकारा नहीं होगा, क्योंकि विज्ञान स्वयं अनेककारणों के द्वारा किये गये उपकारों से अधिष्ठित होने के कारण, उसमें संघातमयता की कल्पना करने में कोई विरोध नहीं है । सारांश, सांख्यमतकल्पित नित्य चैतन्यस्वरूप आत्मा की सिद्धि किसी भी तरह नहीं हो पाती । पर्यायास्तिक मत के समुचे वक्तव्य का निष्कर्ष यह है कि अशुद्ध द्रव्यास्तिक नय पर अवलम्बित सांख्यदर्शन की कल्पना के अनुसार दिखाये गये पदार्थों की सिद्धि सम्भवारूद नहीं है । - यह पर्यायास्तिकमत का निरूपण हुआ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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