Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 377
________________ ३५८ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् निषिद्धे च सत्कार्यवादे 'असत् कार्य कारणे' इति सिद्धमेव, सदसतोः परस्परपरिहारस्थितत्वेन प्रकारान्तराऽसम्भवात् - तथापि परोपन्यस्तदूषणस्य दूषणाभासप्रतिपादनप्रकारो लेशतः प्रदश्यते। तत्र यत्तावदुक्तं परेण 'असत् कर्तुं नैव शक्यते निःस्वभावत्वात्' इति (२९९-३) तदसिद्धम् वस्तुस्वभावस्यैव विधीयमानत्वाभ्युपगमात्, तस्य च नैरूप्याऽसिद्धेः । अथ प्राग उत्पत्तेनिःस्वभावमेव तत् । न, तस्यैव निःस्वभावत्वाऽयोगात् । न यतः सस्वभाव एव निःस्वभावो युक्तः, वस्तुस्वभावप्रतिषेधलक्षणत्वानिःस्वभावत्वस्य । न च क्रियमाणं वस्तु उत्पादात् प्रागस्ति येन तदेव निःस्वभावं सिद्धयेत् । न च वस्तु विरहलक्षणमेव धर्मिणं नि(?नी) रूपं पक्षीकृत्य 'नरूप्यात्' इति हेतुः प(?क)क्षीक्रियत इति वक्तव्यम् सिद्धसाध्यताप्रसंगात्, यतो न वस्तुविरहः केनचिद् विधीयमानतयाऽभ्युपगतः । अनैकान्तिकश्चायं हेतुः विपक्षे बाधकप्रमाणाऽप्रदर्शनात् । कारणशक्तिप्रतिनियमाद्धि किश्चिदेवासत् यदि निश्चयविषयक द्वितीय उपलम्भ का सत्त्व मान्य किया जाय तो वह उपलम्भ ही सत् होने के कारण नित्य होने से, उसका आवरण भी घट नहीं सकेगा । आवरण सम्भव न होने से उसका विनाश भी घट नहीं सकेगा, तब अभिव्यक्ति को कैसे संगत करेंगे ? दूसरी बात यह है कि आवरणध्वंस तो तुच्छस्वरूप है, इसलिये उसका किसी उपाय से निष्पादन ही शक्य नहीं होगा। निष्कर्ष, तीनों विकल्प में अभिव्यक्ति घट नहीं सकने के कारण सत्कार्यवाद की सिद्धि के लिये हेतुप्रयोग का विन्यास निरर्थक ठहरता है । ★ सत्कार्यवाद में बन्धमोक्षाभावादि प्रसंग ★ सांख्य के सत्कार्यवाद में न तो बन्ध घटेगा न मोक्ष । कैसे यह देखिये - कपिल ऋषि के भक्तों का ऐसा मन्तव्य है कि 'मैं प्रकृति से पृथक् हूँ' इस प्रकार जब प्रकृतिविनिर्मुक्त केवल पुरुष के उपलम्भ स्वरूप तत्त्वज्ञान का प्रादुर्भाव होना - यही अपवर्ग यानी मोक्ष कहा जाता है । किन्तु ऐसा तत्त्वज्ञान नित्यवादी सांख्यमत में सदा के लिये उपस्थित ही है, इसलिये समस्त देहधारियों की मुक्ति हो जानी चाहिये । वह मुक्ति भी नित्य मुक्ति रूप होने से अब बन्ध तत्त्व भी सत्कार्यवाद में संगत नहीं होगा । कारण, बन्ध तो मिथ्याज्ञान के प्रभाव से होता है, तत्त्वज्ञान की तरह ही मिथ्याज्ञान भी सदा के लिये अवस्थित होने पर सभी जीव सदा के लिये बन्धनग्रस्त ही रहेंगे तो किस का मोक्ष होगा ? सत्कार्यवाद के स्वीकार में लोकव्यवहार का भी तिरस्कार हो जाता है। कैसे यह देखिये - हित की प्राप्ति और अहित के त्याग के लिये सब प्रयत्न करते हैं। किंतु सांख्यमत में कुछ भी अप्राप्त नहीं है क्योंकि नित्य होने से जो प्राप्त होना चाहिये वह प्राप्त ही है और जिस का त्याग होना चाहिये वह त्यक्त ही है अत: नया कुछ भी प्राप्तव्य अथवा त्याज्य रहता ही नहीं । फलतः सारा जगत् व्यापार(= प्रयत्न)हीन बन जाने से, सारे लोकव्यवहार का उच्छेद प्रसक्त होगा । ★सत्कार्यदादनिषेध असत्कार्यवादसाधक ★ जब सत्कार्यवाद निषिद्ध हो गया तो अर्थत: उस का विपर्यय सिद्ध हो जाता है कि कारण में उत्पत्ति के पूर्व कार्य असत् होता है । क्योंकि सत् और असत् एक-दूसरे का परिहार कर के रहते हैं और सत्-असत् के अलावा कोई तृतीय विधा नहीं है इसलिये सत् का निषेध असत् के विधान में फलित होता है । इस प्रकार असत् कार्य की अर्थत: सिद्धि हो जाने पर भी, असत्कार्यवाद में अन्यवादियोंने जो दोषारोपण किया है वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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