Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 399
________________ ३८० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् यद्यपि मार्ग नोपलभते तथापि पङ्गोर्विवक्षामसौ वेत्ति तस्य चेतनावत्त्वात्। न चैवं प्रधानं पुरुषविवक्षामवगच्छति तस्याऽचेतनवत्त्वेन जडरूपत्वात् । न च तयोर्नित्यत्वेन परस्परमनुपकारिणोः पंग्वन्धवत् सम्बन्धोऽपि युक्तः । अथ प्रधानं पुरुषस्य दिदृक्षामवगच्छतीत्यभ्युपगम्यते - तथा सति भोक्तृत्वमपि तस्य प्रसज्यते करणज्ञस्य भुजिक्रियावेदकत्वाऽविरोधात् । न च य एकं जानाति तेनापरमपि ज्ञातव्यमित्ययं न नियमः, यतः प्रधानस्य कर्तृत्वे भोक्तृत्वमपि नियतसन्निधीति युक्तं वक्तुम्, यतो यदि प्रधानस्य बुद्धिमत्त्वमंगीक्रियते तदा पुरुषवच्चैतन्यप्रसंगः बुद्धयादीनां चैतन्यपर्यायत्वात् । यतो यत् प्रकाशात्मतयाऽपरप्रकाशनिरपेक्ष स्वसंविदितरूपं चकास्ति तत् चैतन्यमुच्यते, तद् यदि बुद्धेरपि समस्ति चिद्रूपा सा किमिति न भवेत् ! न च यथोक्तबुद्धिव्यतिरेकेणापरं चैतन्यमुपलक्षयामः यतस्तद्व्यतिरिक्तस्य पुरुषस्य सिद्धिर्भवेत् ।। यदपि चिद्रूपत्वाद् बुद्धर्भेदप्रसाधनाय परैरनुमानमुपन्यस्यते - यद् यद् उत्पत्तिमत्त्व-नाशित्वादिधर्मयोगि तत् तदचेतनम् यथा रसादयः तथा च बुद्धिरितिं स्वभावहेतुरिति । तत्रापि वक्तव्यम् किमिदं स्वतन्त्रसाधनम् आहोस्वित् प्रसंगसाधनमिति ? तत्र स्वतन्त्रसाधनेऽन्यतराऽसिद्धो हेतुः, यतो यथाविध यदि मान लिया जाय कि प्रधान पुरुष की दिदृक्षा को किसी तरह समझ लेता है, तो फिर प्रधान में भोक्तृत्व भी मान सकते हैं, क्योंकि जड होने पर भी जिसमें करणज्ञातृत्व (कैसे भोगसंपादन करना उसका ज्ञान) हो सकता है उसमें भुजिक्रियावेदन यानी भोगानुभव भी मानने में क्या विरोध है ? यदि ऐसा कहा जाय कि - 'ऐसा कोई नियम नहीं है कि जिसको एक विषय का ज्ञान है उसको अन्य विषय का ज्ञान भी होना ही चाहिये । ऐसा नियम होता तब तो प्रधान में करणज्ञान से कर्तृत्व होता है वैसे भोगज्ञान से भोक्तृत्व का संनिधान भी मान लेना पडता' - ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि प्रधान में यदि बुद्धितत्त्व का स्वीकार करते हैं तो पुरुष की तरह उसमें चैतन्य भी स्वीकार करना होगा, क्योंकि बुद्धि-ज्ञानादि चैतन्य के ही पर्याय हैं। कैसे यह देखिये- जो भी अन्यप्रकाश की अपेक्षा न रख कर प्रकाशमय होते हुये स्वयंसंवेदि के रूप में स्फुरित होता है वही 'चैतन्य' कहा जाता है । ऐसा चैतन्य यदि बुद्धि यानी महत् में है तो वह भी चिन्मय क्यों नहीं होगी? उपर्युक्त बुद्धि से पृथक् कोई चैतन्य जैसी चीज देखने में ही नहीं आती कि जिस से बुद्धि से अतिरिक्त (अर्थात् बुद्धिमत् प्रधानतत्त्व से पृथक्) पुरुष की सिद्धि हो सके । ★बुद्धि में अचेतनतासाधक अनुमान दोषग्रस्त★ बुद्धि में चैतन्य का भेद सिद्ध करने के लिये यह जो अनुमानप्रयोग सांख्यवादियों ने कहा है- 'जो कुछ भी उत्पत्ति-विनाशधर्मधारी है वह सब सचेतन होता है जैसे रस-रूपादि । बुद्धि भी उत्पत्तिविनाशधर्मधारी है इसलिये अचेतन होनी चाहिये ।' - यह स्वभावहेतुक प्रयोग है ।- इस के ऊपर भी कुछ कहना पडेगा, क्या यह स्वतन्त्ररूप से बुद्धि में अचेतनत्व सिद्ध करने के लिये प्रयोग किया है या सिर्फ बुद्धि में अचेतनत्व का अनिष्ट प्रसंगापादन करने के लिये ? यदि स्वतन्त्र साधन हो तो उस में हेतु उभयपक्षमान्य होना चाहिये, किन्तु यहाँ दो में से एक पक्ष में वह असिद्ध है। कैसे यह देखिये -- बौद्ध मत में अपूर्वप्रादुर्भाव स्वरूप उत्पाद है और निरन्वयनाश स्वरूप विनाश है, सांख्य मत में ऐसा नहीं है, उस के मत में तो आविर्भाव-तिरोभाव रूप उत्पाद-विनाश है, किन्तु वैसा बौद्धमत में नहीं है । अब यदि बौद्धमतप्रसिद्ध उत्पाद-विनाशशालित्व को हेतु बनायेंगे तो सांख्यमत में हेतु असिद्ध हो जायेगा, और सांख्यमतप्रसिद्ध उत्पाद-विनाश से गर्भित हेतु बनायेंगे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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