Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 382
________________ ३६३ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ सर्वस्य सर्वार्थक्रियाकारिभावत्वस्याऽसिद्धेः । यदपि 'अकार्यातिशयम्' ...इत्यायुक्तम् (३०१-३) तदप्यभिप्रायाऽपरिज्ञानादेव । यतो नास्माभिः 'अभाव उत्पद्यते' इति निगयते येन विकारापत्तौ तस्य स्वभावहानिप्रसक्तिरापयेत, किन्तु वस्त्वेव समुत्पाद्यते इति प्राक् प्रतिपादितम् । तच्च वस्तु प्रागुत्पादात् असत उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेः निष्पन्नस्यातिप्रसंगतः कार्यत्वानुपपत्तेश्व-इत्युच्यते । यस्य च कारणस्य सविधानमात्रेण तत् तथाभूतमुदेति तेन तत् "क्रियते' इति व्यपदिश्यते, न व्यापारसमावेशात् किंचित् केनचित् क्रियते, सर्वधर्माणामव्यापारत्वात् । नाप्यसत् किंचिदस्ति यन्नाम क्रियते असत्त्वस्य वस्तुस्वभावप्रतिवन्धलक्षणत्वात् । अपि च यदि अकार्यातिशयवत् तदसन क्रियते इत्यभिधीयते, सदपि सर्वस्वभावनिष्पत्तेरकार्यातिशयमेवेति कथं क्रियते ? ततः 'शक्तस्य शक्यकरणात्' इत्ययमप्यनैकान्तिकः । सत्कार्यवादे च कारणभावस्याऽघटमानत्वात् 'कारणभावात्' इत्ययमप्यनैकान्तिकः । (= मर्यादित) शक्ति के रहने से ही कर्ता नियत अमुक ही उपादान का ग्रहण करता है - यह घट सके ऐसी बात है। इस लिये असत्कार्यपक्षरूप विपक्ष में भी उपादानग्रहण हेतु के रह जाने से वह साध्यद्रोही हुआ। 'सभी से सब की उत्पत्ति का अभाव' (तीसरा हेतु) भी असत्कार्यपक्ष में कारणशक्ति के मर्यादित होने के कारण ही हो सकता है, क्योंकि सर्वार्थक्रियाकारित्व सर्व में होवे ऐसा देखने को नहीं मिलता। पहले जो यह कहा था [३०२-१३] 'असत् कार्य अतिशयआधानयोग्य नहीं होता, इसलिये उस का करण अशक्य है । यदि उसे अतिशयाधानयोग्य मानेंगे तो असत् विकृत हो जाने से असत्स्वरूप की हानि प्रसक्त होगी'...इत्यादि वह सब हमारे अभिप्राय को समझे विना कह दिया है। हम ऐसा नहीं कहते कि 'अभाव उत्पन्न होता है', ऐसा कहते तब तो विकारप्राप्ति होने के जरिये स्वरूपहानि के प्रसंग को अवकाश मिल सकता । हम तो कहते हैं कि कारणों के व्यापार से अभाव नहीं किन्तु नयी वस्तु ही उत्पन्न होती है जो उत्पत्ति के पहले नहीं थी क्योंकि उपलब्धि की योग्यता रहने पर भी उस की उपलब्धि नहीं होती थी । एवं वही वस्तु यदि उत्पत्ति के पूर्व वह सत् यानी निष्पन्न रहती तब उस की उपलब्धि का अथवा उस से साध्य अर्थक्रिया का अथवा पुन: उत्पत्ति का प्रसंग दोष होता है, इस कारण पूर्व में सत् होने पर वस्तु में कार्यत्व ही संगत नहीं होता - यह हमारा कहने का अभिप्राय है । तथा जिस कारण की संनिधि होने पर वस्तुभूत कार्य उत्पन्न होता है वह उस कारण से जन्य कहा जाता है - यहाँ ऐसा नहीं है कि 'कारण में किसी व्यापार का आवेश होता है तब कार्योत्पत्ति होती है' - क्योंकि प्रत्येक धर्म कारणतादि हमारे मत में निर्व्यापार ही होता है। असत्त्व का मतलब है वस्तुस्वभाव का व्यतिरेक, अत: ऐसा कोई असत् हो नहीं सकता जिस का स्वभावापादान स्वरूप 'करण' किया जा सके । यदि ऐसा कहें कि अतिशयाधान के लिये योग्य न होने के कारण असत् का करण अशक्य है - तो इस के सामने यह भी कहा जा सकेगा कि सत् पदार्थ अपने पूरे स्वरूप में सम्पन्न होने के कारण वह भी अतिशयाधान के लिये अयोग्य है फिर उस का भी करण कैसे होगा ! इसी लिये 'शक्त का शक्यकरण' यह (चौथा) हेतु भी साध्यद्रोही है, क्योंकि सत्-कार्य पक्ष में वह संगत नहीं हो सकता । तथा, सत्कार्यवाद में सर्वथा निष्पन्न कार्य के प्रति कारणत्व भी उक्त रीति से घट नहीं सकता अत: 'कारणभाव' यह पाँचवा हेतु भी साध्यद्रोही सिद्ध होता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436