Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 384
________________ द्वितीयः खण्डः का० - ३ ३६५ न ह्यसनाम किंचिदस्ति यद् उत्पत्तिमाविशेत् 'असदुत्पद्यते' इति तु कल्पनाविरचितव्यवहारमात्रम् । कल्पनाबीजं तु प्रतिनियतपदार्थानन्तरोपलब्धस्य रूपस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्योत्पत्त्यवस्थातः प्रागनुपलब्धिः । तदेवमुत्पत्तेः प्राक् कार्यस्य न सत्त्वं धर्मः नाप्यसत्त्वम् (त) स्यैवाभावात् । अपि च, पयः प्रभृतिषु कारणेषु दध्यादिकं कार्यमस्तीति यद्युच्यते तदा वक्तव्यम् किं व्यक्तिरूपेण तत् तत्र सत् अथ शक्तिरूपेण ? तत्र यदि व्यक्तिरूपेणेति पक्षः स न युक्तः क्षीराद्यवस्थायामपि दध्यादीनां स्वरूपेणोपलब्धिप्रसंगात् । नापि शक्तिरूपेण, यतस्तद्रूपं दध्यादेः कार्यानु (दु)पलब्धिलक्षणप्राप्तात् किमन्यत्, आहोस्विद् तदेव ? यदि तदेव तदा पूर्वमेवोपलब्धिप्रसंगो दध्यादेः । अथ अन्यदिति पक्षस्तदा कारणात्मनि कार्यमस्तीत्यभ्युपगमस्त्यक्तो भवेत् कार्याद् भिन्नतनोः शक्तयभिधानस्य पदार्थान्तरस्य सद्भावाभ्युपगमात् । तथाहि - यदेवाविर्भूतविशिष्टरसवीर्यविपाकादिगुणसमन्वितं पदार्थस्वरूपं तदेव दध्यादिकं कार्यमुच्यते, क्षीरावस्थायां च तद् उपलब्धिलक्षणप्राप्तमनुपलभ्यमानमसद्व्यवहारविषयत्वमवतरति, यच्चान्यच्छक्तिरूपम् तत् कार्यमेव न भवति । न चान्यस्य भावेऽन्यत् सद् भवति अतिप्रसंगात्। तो वह कैसे दूसरे का सम्बन्धी बनेगा ? हाँ सिर्फ कल्पनाबुद्धि से वस्तु का असत् के साथ सम्बन्ध बना सक हैं । कोई ऐसा असत् है नहीं जो उत्पत्तिनगर में प्रवेश कर सके । 'असत् उत्पन्न होता है' ऐसा शाब्दिक व्यवहार सिर्फ कल्पना की निपज है । उस कल्पना का आधार यह है कि कारणरूप से सम्मत नियत पदार्थ के पश्चात् उपलब्धि के लिये योग्य ऐसा जो तत्त्व उपलब्ध होता है वह उस की उत्पत्ति के पूर्व उपलब्ध नहीं होता था । सारांश, लंकावतारसूत्रविधान के अनुसार पूर्वोक्त रीति से कार्य अपनी उत्पत्ति के पहले सत् नहीं होता ऐसे असत् भी नहीं होता क्योंकि वह खुद ही वहाँ मौजूद नहीं होता । ★ शक्ति-व्यक्ति रूपों से कार्यसद्भाव अशक्य ★ यह भी विचारणीय है कि यदि ऐसा कहा जाय कि दुध आदि कारणों में दहीं आदि कार्य का अस्तित्व है - तो यहाँ प्रश्न है कि वहाँ कार्य का अस्तित्व व्यक्तिरूप से है या शक्तिरूप से ? यदि कहें कि व्यक्तिरूप से, तो वह उचित नहीं है क्योंकि तब दूध आदि अवस्था में भी व्यक्तिरूप दहीं आदि के उपलम्भ की आपत्ति होगी । ' शक्तिरूप से' यह उत्तर भी वाजिब नहीं है, क्योंकि प्रश्न होगा - वह शक्तिरूप, उपलब्धियोग्य दही आदि कार्य से भिन्न है या अभिन्न ? यदि अभिन्न है तब तो शक्तिरूप से दहीं का अस्तित्व और दहीं आदि व्यक्ति एक होने से उत्पत्ति के पूर्व में भी दहीं आदि व्यक्ति का उपलम्भ प्रसक्त होगा । यदि कहें कि भिन्न है, तब तो कारणभाव में कार्य का अस्तित्व होने का सिद्धान्त छोड देना होगा । क्योंकि कार्य से भिन्न शरीर वाले 'शक्ति' संज्ञक अन्य पदार्थ का अस्तित्व ही वहाँ आपने स्वीकार लिया, न कि कार्य का । कैसे यह देखिये, जिस पदार्थ में विशिष्ट कोटि के रस, वीर्य, विपाकशक्ति, आदि गुणों का समन्वयात्मक स्वरूप प्रगट हुआ है वही दहीं आदि कार्य कहे जाते हैं । दुध अवस्था में यदि वे होते हैं तो उपलब्धियोग्य होने के कारण उन का उपलम्भ होना चाहिये, किन्तु नहीं होता है, इस लिये दुधअवस्था में दहीं आदि पदार्थ 'असत्' शब्दव्यवहार के काबिल है । वह जो कार्य दही आदि से भिन्न शक्तिरूप है वह कार्यरूप ही नहीं है, अतः उस के रहने पर भी कार्य का अस्तित्व स्वीकृत नहीं हो सकता । चैत्रादि एक व्यक्ति के रहने पर कभी मैत्रादि अन्य व्यक्ति अस्तित्व का स्वीकार नहीं हो सकता । अन्यथा सर्वत्र सब के अस्तित्व के स्वीकार का अतिप्रसंग सिर उठायेगा । यदि कहें कि 'वह शक्ति कार्य से भिन्न होने पर भी कार्यानुकुल है इस लिये उपचार से वहाँ कार्य का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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