Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 390
________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ ३७१ धर्मिविशेषविपरीतसाधनाद् विरुद्धोऽप्ययं हेतुः । तथाहि- एको नित्यस्त्रिगुणात्मकः कारणभूतो धर्मी साधयितुमिष्टः, तद्विपरीतश्च अनेकोऽनित्यश्च ततः सिद्धिमासादयति । यतो व्यक्तं नैकया त्रिगुणात्मिकया स्वात्मभूतया जात्या समन्वितमुपलभ्यते, किं तर्हि ? अनेकत्वाऽनित्यत्वादिधर्मकलापोपेतमेव; अतः कार्यस्याऽनित्यत्वानेकत्वादिधर्मान्वयदर्शनात्कारमपि तथैवानुमीयताम् क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधाद् न नित्यस्य कारणत्वम् कारणभेदकृतत्वाच्च कार्यवैचित्र्यस्य, अन्यथा निर्हेतुकत्वप्रसंगाद् नैकरूपस्यापि कारणत्वमिति विपर्ययसिद्धिप्रसक्तेन नित्यैकरूपप्रधानसिद्धिः । यदि तु अनित्याऽनेकरूपे कारणे 'प्रधानम्' इति संज्ञा क्रियते तदाऽविवाद एव । यद्यपि 'सत् सत्' इत्येकरूपेण स एवायम्' इति च स्थिरेण स्वभावेनानुगता अध्यवसीयन्ते कल्पनाज्ञानेन भावाः, तथापि नैकजात्यन्वयः स्वस्वभावव्यवस्थिततया देश-काल-शक्ति-प्रतिभासादिभेदात्; होता है तब प्रीति (=अपूर्वहर्ष) आदि का प्रादुर्भाव दिखाई देता है । तथा, बाह्यविषयों के संनिधान की प्रतीक्षा किये विना ही सिर्फ इष्ट या अनिष्ट विकल्प से ही सुख-दुखादिरूप संवेदन प्रगट होता है, इस स्थिति में सुखादिसंवेदन को परोपाधिक कैसे माना जाय ? ____ यदि कहें कि- 'मन त्रिगुणमय है, उसके संनिधान से संवेदन में सुखादिरूपता लक्षित होती है' - तो यह ठीक नहीं है, क्योकि मन भी संवेदनस्वरूप ही है यह बात 'जो प्रकाशान्तर- निरपेक्ष होता है वह सातादिरूपानुभावात्मक स्वयं सिद्ध होता है' [३६७-१३] इत्यादिसंदर्भ में सिद्ध कर चुके हैं । सारांश, प्रधान की सिद्धि के लिये प्रयुक्त 'समन्वय' हेतु असिद्ध है । ★ 'प्रधान साधक समन्वय हेतु अनैकान्तिक और विरुद्ध ★ 'समन्वय' हेतु अनैकान्तिक (=साध्यद्रोही) भी है, क्योंकि हेतु की 'प्रधान' संज्ञक कारण के साथ कहीं भी अन्वय यानी व्याप्ति सिद्ध नहीं है । कैसे यह देखिये - समन्वय हेतु के द्वारा आप चाहते हैं 'व्यापक - नित्य -त्रिगुणात्मक - एक कारण' की सिद्धि । किन्तु हेतुप्रयोग के पहले ऐसा कारण सर्वथा हेतु का अविनाभावात्मक सम्बन्ध प्रसिद्ध नहीं है । उपरांत, ऐसा कोई नियम नहीं है कि 'कार्य का जैसा आत्म स्वरूप हो कारण का आत्मस्वरूप भी वैसा ही होना चाहिये' । ऐसा नियम इस लिये नहीं होता कि कार्य और कारण के आत्मस्वरूप में काफी भिन्नता होती है । जैसे देखिये - आप ही मानते हैं कि व्यक्त (यानी जो कार्य होते हैं ऐसे) तत्त्व सहेतुक, अनित्य इत्यादि (सां.का. १० के अनुसार) धर्मों को धारण करता है, और अव्यक्त (प्रधान) तत्त्व उससे विपरित होता है । इस प्रकार जब कार्य-कारण के आत्मस्वरूप में भिन्नता है तो इसका मतलब कारणतत्त्व में कार्यसाजात्य नहीं हैं, फिर भी यदि उसमें समन्वय हेतु रहेगा तो वह अनैकान्तिक क्यों नहीं होगा ? बल्कि यह हेतु, व्यापकत्वादिधर्माधारभूत धर्मी को सिद्ध करने के बजाय कार्यसाजात्य के रूप में अव्यापकत्वादिधर्माधारभूत धर्मिविशेष को यानी विपरीत साध्य को सिद्ध कर रहा है, इसलिये विरुद्ध ठहरता है । देखिये - आप चाहते हैं एक-नित्य-त्रिगुणमय कारणभूत धर्मी की सिद्धि, किन्तु समन्वय हेतु से तो कार्यसजातीय यानी अनेक अनित्य धर्मी सिद्ध हो रहा है क्योंकि व्यक्त तत्त्व कभी एक त्रिगुणात्मक आत्मभूत जाति समन्वित उपलब्ध नहीं होता किन्तु अनेकत्व, अनित्यत्वादि धर्मसमूह से विशिष्ट ही उपलब्ध होता है । जब कार्य में अनित्यत्व-अनेकत्वादि धर्मों का अन्वय दिकाई देता है तो कारणस्वरूप भी वैसा ही अनुमित करना चाहिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436