Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 370
________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ ३५१ अनवस्थाप्रसक्तिश्च विपर्यये बाधकं प्रमाणम् जनितस्यापि पुनर्जन्यत्वप्रसंगात् । तदेवं कार्यत्वाभिमतानामकार्यत्वप्रसक्तिः सत्कार्यवादाभ्युपगमे । कारणाभिमतानामपि मूलप्रकृति-बीज-दुग्धादीनां पदार्थानां विवक्षितमहदादि-अंकुर-दध्यादिजनकत्वं न प्राप्नोति अविद्यमानसाध्यत्वात् मुक्तात्मवत् । प्रयोगः - यद् अविद्यमानसाध्यम् न तत् कारणम् यथा चैतन्यम् (अ)विद्यमानसाध्यवाभिमतः पदार्थः - इति व्यापकानुपलब्धिः । प्रसंगसाधनं चैतद् द्वयमपि अतो नोभयसिद्धोदाहरणेन प्रयोजनम् । भोगं प्रत्यात्मनोपि कर्तृत्वाभ्युपगमे मुक्तात्मा उदाहर्त्तव्यः । न च प्रथमप्रयोगेऽभिव्यक्ता(त्या)दिरूपेणापि सविशेषणे हेतावुपादीयमानेऽसिद्धता, न ह्यस्माभिरभिव्यक्त्यादिरूपेणापि सत्त्वमिष्यते कार्यस्य, किं तर्हि ? शक्तिरूपेणा निर्विशेषणे तु तस्मिन्ननैकान्तिकता, यतोऽभिव्यक्त्यादिलक्षणस्यातिशयस्योत्पद्यमानत्वान सर्वस्य(या)कार्यत्वप्रसंगो भविष्यति । अत एव - दही की मध्य यानी उत्पत्ति-उत्तरकालीन अवस्था में जैसे अपने स्वतन्त्र रस-वीर्य-विपाकादि होते हैं वैसे ही स्वतन्त्र रसादि के साथ वे दहीं आदि कार्य दुग्धादि में भी उत्पत्ति के पूर्व मौजूद हो, तब कौन सा ऐसा स्वरूप शेष रहा जिस को अभी उत्पन्न करने के लिये प्रवृत्ति की जाय ? जो पहले से ही विद्यमान है - अस्तित्व में है उस की उत्पत्ति (अस्तित्व) कारणाधीन नहीं हो सकती । जैसे पुरुष और प्रधान के पूरे स्वरूप का अस्तित्व पहले से ही है, इस लिये उन की उत्पत्ति कारणाधीन नहीं होती ।। ★ सत्त्वहेतुक अजन्यत्वसाधक अनुमान* अनुमान प्रयोग : जो अपने कारण में सभी प्रकार से सत् होता है वह किसी का जन्य नहीं होता । उदा० प्रकृति अथवा चैतन्य । हालाँ कि प्रकृति एवं चैतन्य के कोई कारण ही न होने से वे अजन्य हैं, न कि अपने कारण में सर्व प्रकारों से सत् होने से । इस लिये यदि हेतु में असिद्धि दोष की शंका की जाय तो अन्य उदाहरण दिया है - मध्यावस्था में (यानी उत्पत्ति के बाद) कार्य अपने कारणों में समस्त प्रकारों से सत् होता है और पुन: उत्पन्न नहीं होता । सांख्य के मत से दहीं आदि पदार्थ दुग्धादि में अपनी उत्पत्ति के पहले भी सभी प्रकार सत् होता है अत: वह जन्य नहीं होगा । 'जो अपने कारण में सभी प्रकार से सत् होता है' इस हेतु निर्देश में 'अपने कारण में' इतना अंश परिचायक ही समझा जाय न कि हेतुगत विशेषण रूप, तो प्रकृति और चैतन्य को भी उदाहरण बना सकते हैं । यह व्यापकविरुद्धउपलब्धिसंज्ञक हेतु का प्रकार यहाँ निर्दिष्ट है । उत्पत्ति के पूर्व असत्त्व यह जन्यत्व का व्यापक है, उस व्यापक का विरोधि है उत्पत्ति के पूर्व सत्त्व जो यहाँ उपलब्ध है । वह जहाँ रहेगा वहाँ उत्पत्ति के पूर्व असत्त्वरूप व्यापक के न रहने से उस का व्याप्य जन्यत्व भी वहाँ नहीं रह सकता । ★ विपक्षव्यावृत्तिशंकानिवारण★ इस प्रयोग में 'सर्वप्रकार से सत्त्व' यह हेतु कभी साध्यद्रोही नहीं है। यदि साध्यद्रोह की अर्थात् हेतु विपक्ष में भी रहने की शंका की जाए तो उस के निवारण के लिये ऐसा आपादन प्रस्तुत है कि सर्व प्रकार से सत् होने का मतलब है अब उस में एक भी नया संस्कार प्रगट होने वाला नहीं । जो ऐसा होता है वह भी अगर जन्य माना जायेगा तो चैतन्य या प्रकृति को भी जन्य मानने की विपदा होगी, तथा जो एक बार उत्पन्न हो गया है वह बार बार उत्पन्न होते रहने की अनवस्था चलेगी । इस विपक्ष बाधक प्रमाण से पुष्ट हेतुप्रयोग से यह फलित होता है कि सत्कार्यवाद के स्वीकार में कार्यरूप से माने हुए तत्त्वों में अकार्यत्व = अजन्यत्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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