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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
२७३ __ अथ पूर्वदृष्टार्थस्य स्मृत्या ग्रहणात् वर्तमानस्य च दर्शनेन प्रतिभासनाद् भेदाधिगतिः नहि केवलं दर्शनं भेदाऽऽवेदकं किन्तु स्मृतिसचिवम् । असदेतत्, यतः स्मृतिरपि पूर्वमनुभूतमवैति न च पूर्व भिन्नमवगतम्, तत् कथं साऽपि प्रतियोगिनं भिन्नमादर्शयितुं क्षमा ? तन तयाऽपि भेदाधिगतिः । किंच, स्वरूपनिमग्नत्वान भावभेदमवगन्तुं सा समर्था । तथाहि, स्मर्यमाणेन वा रूपेण स्मृतिस्तमर्थमवतरेत् दृश्यमानेन वा ? न तावद् दृश्यमानेन रूपेणार्थमवतरति स्मृतिः तस्य तत्राप्रतिभासनात् । नापि स्मर्यमाणेन रूपेण तमर्थमवतरति, स्मर्यमाणस्य रूपस्य तत्राऽभावात् - परिस्फुटं दर्शनारूढं हि रूपं तस्य पूर्वमधिगतम् न च तत् स्मृतौ प्रतिभाति । तन्नार्थस्वरूपग्राहिणी स्मृतिः सम्भवतीति न ततो भेदग्रहः ।
अथोत्तरदर्शने स्मृतौ वा यदि पूर्वरूपं नाभाति तदा तदप्रतिभासनमेव भेदवेदनम् । तथा चाह - जो उन भावों से आक्रान्त देश हैं वे जब तक ‘भिन्न' स्वरूप से प्रकाशित न हो जाय तब तक उन के भेद से; वस्तु का भेद कैसे मान सकेंगे ? तात्पर्य यह है कि देशभेद भी असिद्ध है और जब अपने ही भेद की व्यवस्था डाँवाडोल है तब उस से अन्य के भेद की व्यवस्था कैसे हो सकती है ? जब आक्रान्त देश भेदप्रयोजक नहीं हो सकता तो जो अनाक्रान्त देश दिखाई देता है उस से तो वस्तुभेद की आशा ही कहाँ ? यदि उस से भी वस्तुभेद मान लेंगे तो सारी दुनिया भी वस्तुभेदप्रयोजक बन जाने की आपत्ति आयेगी । सारांश, देशभेद वस्तुभेदप्रयोजक नहीं है और अत एव देशभेद से वस्तुभेद का प्रत्यक्ष भी असम्भव है।
* कालभेद से वस्तुभेद प्रत्यक्ष से अग्राह्य★ कालभेदप्रयुक्त वस्तुभेद का प्रत्यक्ष से ग्रहण अशक्य है, क्योंकि प्रत्यक्ष तो स्वसमानक्षणवृत्ति अर्थ के ग्रहण में ही सक्षम होता है, भेदग्रहण के लिये पूर्वोत्तरक्षणवृत्ति अर्थ का भेदप्रतियोगी के रूप में वर्तमान में ज्ञान होना जरूरी है किन्तु वह समानकालीन न होने से शक्य नहीं । जब प्रतियोगीज्ञान ही अशक्य है तब भेदज्ञान की आशा कैसे ? देखिये- आद्य क्षण में जब मिट्टिपिण्ड का उपलम्भ होता है उस समय भावि घटावस्था का उपलम्भ शक्य नहीं । भावि घटावस्था उस समय गृहीत न होने पर, भाविघटसापेक्ष आद्यक्षणविषयनिष्ठ भेद भी आद्यक्षणभावि प्रत्यक्ष से गृहीत होना अशक्य है । कारण, घटादि प्रतियोगी अज्ञात रहने पर 'घटादि से यह भिन्न है' इस प्रकार भेदोपलम्भ हो नहीं सकता । तात्पर्य यह है कि आद्य क्षण में दर्शन में मिट्टी का स्वरूप प्रतिबिम्बित होता है इस लिये उसका बोध होना युक्तिसंगत है, किन्तु प्रतिबिम्बित न होने वाला भाविघट 'भविष्य में होने वाला है' इस ढंग से उस क्षण में गृहीत होता हो इस बात में कोई प्रमाण नहीं है, तब भेद गृहीत होने की तो बात ही नहीं।
यदि कहें कि- 'उत्तरक्षण में जो घटदर्शन होगा वह मिट्टिपिण्ड से अपने विषय के भेद का ग्रहण कर लेगा'- तो ऐसा मानना अयुक्त है, उत्तरक्षण में होने वाला दर्शन भी अपने समानकालीन संमुखस्थित अर्थ का ही प्रतिभास कराने में समर्थ है, पूर्वदृष्ट अर्थ को प्रतिभासित करने में सक्षम नहीं है, अत: उसके ग्रह के अभाव में उस पूर्ववर्त्ति मिट्टीपिण्ड के वर्तमान घटादिअर्थ में भेद का ग्रहण करने में वह समर्थ नहीं हो सकता । अत: कालभेद से भी भेद का उपलम्भ शक्य नहीं है ।
★ स्मृति द्वारा कालभेद से वस्तुभेद अग्राह्य★ आशंका :- पूर्वदृष्ट अर्थ का ग्रहण स्मृति से हो जाय और वर्तमान अर्थ का ग्रहण दर्शन से हो जाय,
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