Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 341
________________ ३२२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् एव हि रूपे स्मृतेः प्रवृत्त्युपलम्भात् ? पूर्वरूपता तु सती अपि नेदानींतनदर्शनावमातेति न स्मृतिगोचरमुपगंतुमीशेति 'दृष्टमात्रमेव स्मृतिपथमुपयाति । अथ पूर्वदर्शनेन पूर्वरूपता विषयीकृतेति स्मृतिरपि तां परामशति - असदेतत् पूर्वरूपतायाः पूर्वदर्शनेनाप्यपरिच्छेदात्, यतः सकलमेवाध्यक्षं वर्तमानमात्रावभासं परिस्फुटं संवेद्यत इति वर्तमानमात्रमध्यक्षविषयः ।। ननु यदि पूर्वरूपता नाध्यक्षगोचरः कथं स्मर्यते ? न ह्यदृष्टे स्मृतिरुपपन्ना । - नैतत्, दृष्टमेव हि सकलं नीलादिकं स्मृतिरुल्लिखति स्मर्यमाणं स्फुटं चाकारमपहाय नान्या काचित् पूर्वरूपता स्मृतौ भाति अन्यत्र वा संवेदने, केवलं स्मर्यमाणोऽर्थः 'पूर्वः' इति नाममात्रमनुभवति वर्तमानमपेक्ष्य 'पूर्वः' इति नाममात्रकरणात् । न च 'यथा स्फुटाध्यक्षप्रतिभासिन्यपि क्षणभेदे तत्र व्यवहारप्रवर्तकमनुमानं फलवत् तथा पूर्वरूपे दृश्यमानेऽपि वर्तमानदर्शने तत्र व्यवहारकारितया स्मृतिः फलवती' इति वक्तुं युक्तम् यतो विद्युदादावध्यक्षेऽपि प्रतिक्षणं त्रुटयत् प्रतिभासोऽनुभूयते पूर्वरूपता तु स्मृतिमन्तरेण न क्वचित् प्रतिभाति येन कृतकृत्य हो जायेगी" - क्योंकि प्रत्यक्ष में जिस की सत्ता भासित नहीं होती उस का सद्भाव सिद्ध नहीं होता, अत: पूर्वरूपता का भी सद्भाव सिद्ध नहीं होता, फिर स्मृति क्या उस का ग्रहण करेगी ? यदि वास्तव में पर्वरूपता का सद्भाव होगा तो उसे प्रत्यक्ष में भासित होना चाहिये, क्यों नहीं होती ? यह तो सोचिये कि वर्तमान इन्द्रियजन्यप्रतीति से यदि पूर्वरूपता का ग्रहण नहीं होता तो स्मृति कैसे उस का अवभास करा सकेगी, यह नियम है कि दर्शन से गृहित विषय को ही पुन: प्रकाशित करने के लिये स्मृति सक्रिय बन सकती है। पूर्वरूपता यदि सद्भत है फिर भी वर्तमानकालीनदर्शन में भासित नहीं होती तब वह स्मृति का विषय बनने के लिये भी अक्षम ही रहेगी, जब दृष्ट बनेगी - दर्शनगोचर बनेगी तभी स्मृति का विषय बन सकेगी अन्यथा नहीं। यदि ऐसा कहें कि - पूर्वकालीन दर्शन की, वस्तु की पूर्वरूपता विषय बन चुकी है इस लिये स्मृति से उस का परामर्श किया जा सकेगा - तो यह आशा व्यर्थ है क्योंकि पूर्वकालीनदर्शन से भी पूर्वरूपता का ग्रहण नहीं होता । कारण कोई भी प्रत्यक्ष चाहे पूर्वक्षण का हो या उत्तरक्षण का स्फुटरूप से वर्तमानमात्र का ही अवभासी होने का सर्वविदित है इस लिये वर्तमानता ही केवल प्रत्यक्ष का विषय होती है। यदि यह प्रश्न किया जाय - जब पूर्वरूपता प्रत्यक्ष का विषय ही नहीं होती तब स्मृति का विषय कैसे बन सकती है यह आप भी बताईये, अदृष्ट वस्तु की स्मृति तो होती नहीं - तो उस का उत्तर यह है- स्मृति जिस नीलादि का दर्शन हो चुका है उन का तो उल्लेख करती ही है, स्मृति में उल्लिखित होने वाले उस नीलादि स्पष्ट आकार के अलावा और कोई पूर्वरूपता जैसी चीज ही नहीं है जिस का स्मृति से उल्लेख हो या अन्य किसी संवेदनन से हो । सच बात यह है कि स्मृति में जिस अर्थ का भान होता है वही अर्थ व्यवहार में 'पूर्व' ऐसी संज्ञा को प्राप्त कर लेता है, ऐसा इस लिये कि वर्तमानकाल के अर्थ की अपेक्षा वह 'पूर्व' होता है इस लिये स्मृति के उल्लेख में हम उस अर्थ को 'पूर्व' ऐसी संज्ञा लगा देते हैं। ★ पूर्वरूपता और वर्तमानता का ऐक्यानुभव असिद्ध★ आशंका : आप के मत में क्षणभेद का अनुभव स्फुट प्रत्यक्षसंवेदन में होता है फिर भी उस के बारे * 'न दृष्ट०' इति पूर्वमुद्रिते [पृ० २८९], 'ति १०' इति तु तत्रैव पाठान्तरम् तदेवात्रोपात्तम । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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