Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 365
________________ ३४६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् यतः सर्वेषां परस्परमव्यतिरेकात् कार्यत्वम् कारणत्वं वा प्रसज्येत, अन्यापेक्षितत्वाद् वा कार्य-कारणभावस्य अपेक्षणीयस्य रूपान्तरस्य चाभावात् पुरुषवन प्रकृतित्वम् विकृतित्वं वा सर्वेषां वा स्यात् अन्यथा पुरुषस्यापि प्रकृतिविकारव्यपदेशप्रसक्तिः । उक्तं च - [ यदेव दधि तत् क्षीरं यत् क्षीरं तद् दधीति च । वदता विन्ध्यवासित्वं ख्यापितं विन्ध्यावासिना ॥ इति । 'हतमत्त्वादि(ति?)धर्मासंगि-विपरीतमव्यक्तम्' [२९७-२] इत्येतदपि बालप्रलापमनुकरोति । न हि यद् यतोऽव्यतिरिक्तस्वभावं तत् ततो विपरीतं युक्तम्, वैपरीत्यस्य रूपान्तरलक्षणत्वात्, अन्यथा भेदव्यवहारोच्छेदप्रसंगः, इति सत्त्व-रजस्-तमसाम् चैतन्यानां च परस्परभेदाभ्युपगमो निर्निमित्तो भवेत्, ततश्च विश्वस्यैकरूपत्वात् सहोत्पत्तिविनाशप्रसंगः, अभेदव्यवस्थितेरभिन्नयोगक्षेमलक्षणत्वादिति । व्यक्तरूपाऽव्यतिरेकाद् अव्यक्तमपि हेतुमदादिधर्माऽऽसंगि प्रसक्तम् व्यक्तस्वरूपवत्, अहेतुमत्त्वादिधर्मकलापाध्यासितं वा व्यक्तम् अव्यक्तरूपाऽव्यतिरेकात् तत्स्वरूपवत्, अन्यथातिप्रसक्तिः । अपि च अन्वय-व्यतिरेकनिवन्धनः कार्य-कारणभावः प्रसिद्धः न च प्रधानादिभ्यो महदायुत्पत्यवगमनिबन्धनः अन्वयः व्यतिरेको वा प्रतीतिगोचरः सिद्धः यतः 'प्रधानाद् महान् महतोऽहंकारः ही प्रधानादि के लिये भी आदिसर्गकाल में अपेक्षणीय कोई न होने से, पुरुष की तरह ही न कोई प्रधानादि प्रकृति होंगे या न कोई विकृति होंगे । अपेक्षणीय के अभाव में भी यदि प्रकृति-विकृतिभाव होने का मानेंगे तो वह पुरुष में भी प्रसक्त होगा । कहा है - “जो दहीं है वही दुग्ध है - जो दुग्ध है वही दहीं है - ऐसा कहने वाले विन्ध्यवासी नाम के सांख्याचार्यने सच्चे ही अपनी विन्ध्यगिरिवासिता (यानी पर्वतवासी भील आदि समान जडबुद्धि) का प्रदर्शन कर दिया है।" ऐसा कहने का कारण यही है कि अभेदवाद में असंकीर्णव्यवस्था का उच्छेद आदि दोष लगते हैं। * व्यक्त-अव्यक्त का वैलक्षण्यनिरूपण निराधार ★ सांख्यवादी ने पहले सांख्यकारिका (१०) के आधार पर व्यक्त अव्यक्त में वैलक्षण्य दिखाने के लिये जो कहा था कि व्यक्त तत्त्व हेतुमत्त्व आदि धर्मों से आश्लिष्ट है, अव्यक्त उस से विपरीत है - यह भी निपट बालक-बकवास है । कारण, जो जिस से अव्यतिरिक्त = अभिन्न स्वभाव है वह उस से विपरीत कभी नहीं हो सकता । विपरीत यानी उल्टेपन का यही मतलब है कि भित्रस्वरूप होना । यदि इस प्रकार के उल्टेपन का इनकार करेंगे तो भेदव्यवहार ही लुप्त हो जायेगा । फलतः सत्त्व-रजस्-तमस् का तथा चेतन-पुरुषों का परस्पर भेद अंगीकार निर्मल ठहरेगा। नतीजतन, सारे जगत में एकरूपता आ जाने से सभी का उत्पाद-विना: साथ होने का अतिप्रसंग होगा, क्योंकि सभी में आपको अभेद की स्थापना करनी है, और अभिन्न योगक्षेम (यानी सहोत्पाद, सहविनाश आदि) के आधार पर ही वह शक्य हो सकती है। तथा, अव्यक्त व्यक्त से अभिन्न होने के कारण, व्यक्त के हेतुमत्त्वादि धर्मों का संग अव्यक्त में भी प्रसक्त होगा, जैसे व्यक्त के सभी धर्मों का संग व्यक्त से अभिन्न उस के स्वरूप में भी होता है। अथवा, व्यक्त अव्यक्त से अभिन्न होने के कारण, अव्यक्त के अहेतुमत्त्वादि धर्मों का संग व्यक्त में आ पडेगा, जैसे अहेतुमत्त्वादि धर्मों का संग अव्यक्त से अभिन्न होने के कारण अव्यक्त के स्वरूप में भी होता है। ऐसा यदि नहीं मानेंगे तो अभेदभंग होने का अतिप्रसंग आयेगा क्योंकि अभेद होने पर भी उस के स्वरूप में वे धर्म नहीं होगे तो अभेद भी कैसे रहेगा ? का एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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