Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 02
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 340
________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ ३२१ 'वर्तमानमेव पश्यामि' इत्युल्लेखस्तत्र स्यात् दर्शने तस्य प्रतिभासनात् पूर्वरूपता तु न तत्र प्रतिभातीति कथमध्यक्षोल्लेखं बिभर्ति ? इति न तदवसेया भवेत् । यदि तु पूर्वरूपताऽपि तदवसेया तदा स्मृतिमन्तरेणापि प्रतिभासताम् यतो न 'पूर्वरूपतैव स्मृतिमपेक्षते न वर्तमानतेति' वक्तुं क्षमम् तयोरभेदात् । यदि पूर्वता-वर्तमानतयोर्भेदो भवेत् तदा वर्तमानतावभासेऽपि पूर्वरूपतया न प्रतिभाता इति स्वप्रतिपत्तौ सा स्मृत्यपेक्षा भवेत्, यदा तु यदेव वर्तमानं तदेव पूर्वरूपम् तदा तद्दर्शने तदपि दृष्टमिति न स्मरणं फलवत् तत्र स्यात्, न हि दृश्यमाने स्मृतिः फलवती । स्मृतिर्हि व्यवहारप्रवर्तकत्वेन सप्रयोजना, दृश्यमाने चार्थे दर्शनमेव व्यवहारमुपरचयतीति किं तत्र स्मृत्या ?! न च पूर्वरूपता अध्यक्ष न प्रतिभासते इति स्मृतिस्तत्र सार्थिका, यतः पूर्वरूपतायाः अध्यक्षाप्रतिभासे सद्भाव एव न सिध्येत्, सद्भावे वा कथं तत्र साधनं (? साऽथ न) प्रतिभासेत ? अपि च, इदानीन्तनाक्षजप्रत्ययावभासिनी यदि न पूर्वरूपता, स्मृतिरपि कथं तामवभासयितुं क्षमा, दर्शनविषयीकृत जन्य प्रत्यक्ष भी वर्तमान मात्र अर्थ का प्रकाशन करने में प्रवृत्तिशील होता है, अतीत या अनागत का प्रकाशन उसकी सीमा के बाहर है । ___ आशंका :- 'पहले देखा था वही देख रहा हूँ' ऐसा जो अध्यवसाय होता है उस से ही सिद्ध हो जाता है कि दर्शन अतीतकालानुषक्त अर्थ संवेदि होता है ।। उत्तर : यह ठीक नहीं है। कारण, दर्शन में सिर्फ वर्तमानमात्र ही भासित हो सकता है इसलिये 'मैं वर्तमान अर्थ को देख रहा हूँ' ऐसा ही उल्लेख अध्यवसाय में होना चाहिये, पूर्वरूपता का प्रतिभास उस में शामिल ही नहीं होता तो प्रत्यक्ष के द्वारा उसका उल्लेख कैसे संभव हो सकता है ? शक्य ही नहीं है, अत: पूर्वरूपता प्रत्यक्ष से किसी भी उपाय से बोधित नहीं होती। यह भी विचारणीय है, पूर्वरूपता यदि प्रत्यक्षबोध्य मानी जाय तो स्मृति के विना भी सदैव उस का भान प्रत्यक्ष में होने लगेगा । अब तो ऐसा बोल ही नहीं सकते कि - "पूर्वरूपता को स्वयं प्रत्यक्ष में भासित होने के लिये स्मृति की सहायता चाहिये, वर्तमानता को नहीं चाहिये' - ऐसा इसलिये नहीं बोल सकते कि अब तो एकज्ञानभासित होने से वर्तमानता और पूर्वरूपता का भेद ही नहीं रहा है इसलिये प्रत्यक्ष में पूर्वरूपता के सदैव भान की विपदा को आप उस युक्ति से नहीं टाल सकते । यदि एकज्ञानभासित होने पर भी आप पूर्वता और वर्तमानता का अभेद न मान कर भेद मानेंगे तब तो स्मृति के विरह में जब प्रत्यक्ष में सिर्फ वर्तमानता भासित होगी और पूर्वरूपता अभासित रहेगी तब आप कह सकेंगे कि पूर्वरूपता के भान में स्मृति की अपेक्षा रहती है; किन्तु अब अभेदवाद में वर्तमानस्वरूप एवं पूर्वरूपता में कुछ भेद ही नहीं है तब तो प्रत्यक्ष में वर्तमानता प्रकाशित होने पर पूर्वरूपता अप्रकाशित रह ही नहीं सकती, तब स्मृति से अब कौन सा नया फल अपेक्षित होगा ? वह तो बेकार ही हो जायेगी । दृश्यमान अर्थ का प्रकाश, यह तो कभी स्मृति का फल नहीं होता । स्मृति का प्रयोजन तो आखिर कुछ न कुछ व्यवहार सम्पादन ही होता है, किन्तु दृश्यमान अर्थ का पूरा व्यवहार स्पष्ट दर्शन से ही सम्पन्न होता है तो जब पूर्वरूपता के भान में स्मृति उपयोगी नहीं है, दृश्यमान अर्थ के व्यवहार में भी वह निरुपयोगी है तब उस का प्रयोजन क्या ?! ★ स्मृति के द्वारा पूर्वरूपता का ग्रहण असम्भव ★ ऐसा नहीं कहना कि - "पूर्वरूपता' प्रत्यक्ष में भासित नहीं होती इसलिये उस का ग्रहण कर के स्मृति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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