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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
२५५ नविषयत्वेन स्थितेन प्रतिबन्धग्रहणादेरुपपत्तेरनुमानप्रवृत्तिर्भविष्यति, तज्जनकं वा दर्शनं तथाविधविकल्पे स्वव्यापारारोपकत्वेन विकल्परूपतामापन्नं पूर्वोक्तकार्यजनकत्वादनुमानप्रवृत्तिनिमित्तम्। विकल्पस्यैव प्रामाण्यप्रसक्तेः । तथाहि प्रत्यक्षे निर्विकल्पे सत्यपि यत्रैव यथोक्तो विकल्पस्तत्रैव प्रवृत्त्यादिव्यवहारकर्तृत्वेन तस्य प्रामाण्यं नान्यत्र, अनुमानविकल्पे च प्रत्यक्षाभावेऽपि प्रवृत्त्यादिव्यवहारविधायकत्वेन प्रामाण्यमित्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां विकल्पस्यैव प्रामाण्यम् । इति प्रत्यक्षानुमानप्रमाणद्वयवादिनां व्याप्तिग्राहको वि. कल्पः प्रत्यक्षं प्रमाणमभ्युपगन्तव्यः । तत्र यथा व्यक्तीनामानन्त्येऽपि प्रत्यक्षतः प्रतिबन्धसिद्धिस्तथा संकेतविषयत्वमपि तासां तत एव सेत्स्यति ।
अत एवानुमान-शाब्दयोः सामग्रीभेदाद् भेदेऽपि प्रत्यक्षेण सहैकविषयत्वम् अन्यथाऽपरस्य प्रतिबन्धग्राहकस्य पराभ्युपगमेनाऽसम्भवात् - तयोरप्रवृत्तिप्रसक्तिः । विकल्पस्य प्रतिबन्धग्राहकत्वे तद्विषयस्याऽवस्तुत्वान्न केनचित् कार्यकारणभावस्तादात्म्यं वा । न च विकल्पविषययोर्दर्शनविषयत्वेन स्थितयोः कार्यकारणभावस्तादात्म्यं वा, विकल्पविषयस्य वस्तुदर्शनबलोद्भूतविकल्पप्रदर्शितस्य तद्रूपत्वं तत्त्वतोऽन्यसंकेत का ग्रहण भी सम्भवारूढ मानना युक्तियुक्त है। यहाँ - 'अनन्त व्यक्ति में भी संकेतविषयता का ग्रहण विकल्पात्मक प्रत्यक्ष से ही हो सकेगा' - इस बात को पुष्ट करने के लिये व्याख्याकार पहले बौद्धमत में व्याप्तिरूप संबन्ध का ग्रहण कैसे होगा यह समीक्षा करते हुए कहते हैं -
★विकल्प की महिमा से व्याप्ति का ग्रहण ★ अग्नि और धूम व्यक्तियों का व्याप्ति सम्बन्ध बौद्धमत में प्रत्यक्ष से ही गृहीत हो सकेगा न कि अनुमान से, क्योंकि उस अनुमान के भी व्याप्तिसम्बन्ध को ग्रहण करने के लिये अन्य अन्य अनुमान की आवश्यकता हो जाने से अनवस्था दोष होगा, तथा पहले अनुमान से दूसरे अनुमान में उपयोगी सम्बन्ध' का ग्रहण - दूसरे अनुमान से 'पहले अनुमान में उपयोगी सम्बन्ध' का ग्रहण - ऐसा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष होगा। यदि ऐसा कहें कि - "दर्शन के बाद, दर्शन के ही सामर्थ्यबल से उत्पन्न होने वाले, दर्शन के व्यापार को
आगे बढाने वाले एवं अपने उत्प्रेक्षा (ऊह) नामक व्यापार को पुरस्कृत करते हुए जनसाधारण को जिस में प्रत्यक्षत्व का अभिमान होता है ऐसे (इन विशेषणों से युक्त) विकल्प से ही व्याप्ति सम्बन्ध का ग्रहण हो जाने से अनुमान की प्रवृत्ति हो जायेगी । अथवा ऐसे विकल्प का उत्पादक दर्शन ही उस विकल्प में अपने व्यापार का आरोपक होने के नाते विकल्पस्वरूपता को आत्मसात् कर के सम्बन्ध को ग्रहण करेगा इस लिये वह दर्शन ही अनुमानप्रवृत्ति का निमित्त बन जायेगा !" - ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि इस तरह तो विकल्प के ऊपर ही प्रामाण्य का अभिषेक हो जाता है । (जो आप को इष्ट नहीं) । सुनिये - विकल्प में निम्नोक्त अन्वय-व्यतिरेक से प्रामाण्य सिद्ध होता है, निर्विकल्प प्रत्यक्ष होते हुए भी जिस विषय में पूर्वोक्तस्वरूप विकल्प का प्रादुर्भाव होता है उस विषय में ही प्रवृत्तिआदि व्यवहार के सम्पादन से दर्शन को प्रमाण माना जाता है, जिस विषय में विकल्प का प्रादुर्भाव नहीं होता उस विषय में नहीं (यह व्यतिरेक है) । तथा अनुमान जो कि एक विकल्परूप ही है वह दर्शनजनित न होने पर भी (यानी वहाँ दर्शन का कुछ भी व्यापार न रहने पर भी) अपने विषय में प्रवृत्ति आदि व्यवहार सम्पादन में पटु होने से प्रमाणभूत माना जाता है (यह अन्वय हुआ) । इस प्रकार प्रवृत्ति आदि के लिये विकल्प का ही अन्वय-व्यतिरेक्त से महत्त्व यानी प्रमाण्य सिद्ध होता है । सारांश, प्रत्यक्ष-अनुमान
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