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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
२६७ एव्या, स च विशेषप्रस्तारस्य ऋजुसूत्रशब्दादेः आयो वक्ता। ननु च 'मूलव्याकरणी' इत्यस्य द्रव्यास्तिक-पर्यायनयावभिधेयाविति द्वित्वाद् द्विवचनेन भाव्यम् । न, प्रत्येकं वाक्यपरिसमाप्तेः, अत एव चकारद्वयं सूत्रे निर्दिष्टम् । शेषास्तु नैगमादयो विकल्पा भेदाः अनयो द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकयोः । 'सिं' इति प्राकृतशैल्या "बहुवयणेण दुवयणं" [*] इति द्विवचनस्थाने बहुवचनम् । अंशों का निरूपण शक्य नहीं होता, अत: अंशों का निरूपण करने वाले नैगमादि को तब अवसर मिलेगा जब प्रथम अंशी का यानी द्रव्य-पर्याय का विवेचन द्रव्यार्थिक-पर्यायास्तिक नय से किया जाय । उदा० चित्रकार पहले रेखाओं से चित्र को उभारता है बाद में उसके एक एक अवयवों में रंगकाम होता है, रेखाचित्र विना रंगकाम नहीं होता । इसी हेतु से द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक को मूलव्याकरणकारी कहा है ।
प्रश्न : तो सब से पहले सामान्य-विशेषात्मक वस्तु जो कि मुख्य अंशी है उसी का निरूपण क्यों नहीं किया?
उत्तर :- अरे भाई ! जो पहले कहा कि वस्तु सामान्य-विशेषात्मक होती है यही तो मुख्य अंशी का निरूपण हुआ । मुख्य अंशी का निरूपण यत: सामान्य-विशेष के मिलितरूप से ही शक्य होता है इसीलिये ग्रन्थकार ने यहाँ मख्य अंशभत सामान्य-विशेष, जो कि अपने अंशों के अंशी हैं उन का सर्वप्रथम निरूपण करनेवाले द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक का ग्रहण किया है ।
★ द्रव्यास्तिकपद का शब्दार्थ★ व्याख्याकार 'द्रव्यास्तिक' शब्द समास होने से उस का विग्रह और समासविधि का निर्देश करते हैंद्रव्य और अस्ति ऐसे दो पदों से यह समास बना है । 'द्रव्य' शब्द 'द्रु' धातु से बनता है और धातु अनेकार्थक होने से यहाँ भू अथवा अस् का समानार्थ 'द्रु' धातु माना गया है इसलिये द्रुति , द्रव्य, भवन और सत्ता ये चारों शब्द यहाँ एकार्थक हैं । इस द्रष्य में (यानी सत्ता में) 'अस्ति' = 'परमार्थिक है' ऐसी 'मति' करनेवाले नय को द्रव्यास्तिक नय कहते हैं । यहाँ 'अर्थ, नाम और प्रतीति' तीनों का समान अभिधान होता है - इस न्याय के अनुसार 'अस्ति' पद का अर्थ 'अस्ति' इस प्रकार की मति' ऐसा किया है । मति का अर्थ बुद्धि
और अभिप्राय दोनों अभीष्ट है, बुद्धि अर्थ करने पर ज्ञानात्मक नय और अभिप्राय अर्थ करने पर वचनव्यवहारात्मक नय (=प्रतिपादक नय) दोनों का संग्रह हो जायेगा । यहाँ 'द्रव्य में' का मतलब है द्रव्यविशेष्यक, अत: द्रव्यविशेष्यक अस्तित्व प्रकारक बुद्धिरूप नय द्रव्यास्तिक है यह फलित होता है।
प्रश्न :- 'अस्ति' पद तो क्रियापद है जिस के साथ दूसरे पद का समास कैसे किया ?
उत्तर :- 'अस्ति' पद प्रान्तवर्ती विभक्तिवाले 'अस्ति' पद का प्रतिरूपक अव्ययरूप नाम है, जैसे 'अस्तिक्षीरा गौः' यहाँ है, अत: उसके साथ समास होने में कोई बाध नहीं है । किस सूत्रके आधार पर यह समास बना यह स्पष्ट करते हुए व्याख्याकार कहते हैं कि पाणिनि व्याकरण में द्वितीय अध्याय-प्रथमपाद चतुर्थसूत्र 'सह सुपा' है, उस सूत्र से यहाँ केवल समास हुआ है और वह भी ‘सुपा सह' ऐसा योगविभाग करने से हुआ है । सूत्र का अर्थ है- सुब् विभक्त्यन्त पद का अन्य सुब्विभक्त्यन्त पद के साथ समास होता है जैसे 'पूर्वं भूत:' = भूतपूर्वः । जिस समास की अव्ययीभावादि कोई विशेषसंज्ञा नहीं होती उसको केवल समास कहा जाता है । * बहुवपणेण दुवयणं छट्ठीविभत्तीए भण्णइ चउत्थी । जह हत्था तह पापा, नमोत्थु देवाहिदेवाणं ॥ [ललितविस्तरा]
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