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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
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किञ्च, यदि नाम जातिराभाति शब्द-लिंगाभ्याम् व्यक्तेः किमायातम् येन सा तां व्यनक्ति ? 'तयोः सम्बन्धादिति चेत् ! सम्बन्धस्तयोः किं तदा प्रतीयते उत पूर्व प्रतिपन्नः ? न तावत् तदा भात्यसौ व्यक्तेरनधिगतेः; केवलैव हि तदा जाति ति, यदि तु व्यक्तिरपि तदा भासेत तदा किं लक्षितलक्षणेन ? सैव शब्दार्थः स्यात्, तदनधिगमे न तत्सम्बन्धाधिगतिः । अथ पूर्वमसौ तत्र प्रतीतः तथापि तदैवासौ भवतु; न ह्येकदा तत्सम्बन्धेऽन्यदापि तथैव भवति अतिप्रसंगात् । अथ जातेरिदमेव रूपम् यदुत विशेषनिष्ठता । ननु 'सर्वदा सर्वत्र जातिर्विशेषनिष्ठा' इति किं प्रत्यक्षेणावगम्यते, यद्वाऽनुमानेन ? तत्र न तावत् प्रत्यक्षेण; सर्वव्यक्तीनां युगपदप्रतिभासनानैकदा तनिष्ठता तेन गृह्यते । क्रमेणापि व्यक्तिप्रतीतौ निरवधेर्व्यक्तिपरम्परायाः सकलायाः परिच्छेत्तुमशक्यत्वात् तनिष्ठता न जातेरधिगन्तुं शक्या । का बोध असाधारणरूप से होता है या अन्य साधारणरूप से ? यहाँ पूर्ववत् पहले पक्ष में संगति न होने से आप दूसरे पक्ष का आश्रय करेंगे, तब फिर से वही प्रश्न आयेगा, उस का पूर्ववत् उत्तर करने पर साधारणरूप से अपर अपर साधारण रूप के बोध की परम्परा का अन्त ही नहीं आयेगा । फलत: अर्थक्रियासमर्थ किसी सुनिश्चित साधारणरूप का स्पष्ट भान न होने से 'लक्षितलक्षणा' वृत्ति की तुच्छता ही फलित होगी । [अथवा तदर्थी की प्रवृत्ति अनुपपत्र ही रह जायेगी ।]
* जातिभान से व्यक्तिप्रकाशन असंगत ★ दूसरी बात यह है कि शब्द या लिंग से आप जाति का भान मानते हैं उसमें व्यक्ति के साथ लेना-देना क्या है कि जिस से जाति व्यक्ति का प्रकाशन करने लग जाय ? यदि उत्तर में ऐसा कहें कि- "जाति और व्यक्ति के बीच अविनाभाव या ऐसा कुछ सम्बन्ध मौजुदा होता है इसी लिये जाति व्यक्ति को प्रकाशित करती है।" - तो यहाँ फिर से प्रश्न होगा कि यह संबन्ध जातिभान के काल में ही विज्ञात होता है या उस से पूर्व ही उस को विज्ञात कर रखा होता है ? 'जातिभान के काल में वह विज्ञात होता है' इस विकल्प का स्वीकार शक्य नहीं है क्योंकि सम्बन्ध दो वस्तु की प्रतीति होने पर प्रतीत हो सकता है, यहाँ तो सिर्फ जाति का ही भान हुआ है, व्यक्ति का नहीं, तो उन के सम्बन्ध का ज्ञान कैसे हो सकता है ? अगर जाति का भान होते समय सम्बन्धज्ञान की उपपत्ति करने हेतु उस वक्त व्यक्ति का भी भान स्वीकार कर लेंगे तब तो शब्द और लिंग से सीधा ही व्यक्ति का ज्ञान हो गया, अब लक्षितलक्षणा से व्यक्ति का भान मानने की क्या आवश्यकता रही ? अब तो व्यक्ति स्वयं ही शब्दार्थ बन जायेगी । ऐसा यदि नहीं मानेंगे तो उस के सम्बन्ध का भान घट नहीं सकेगा।
यदि कहें कि 'सम्बन्ध को पहले से ही विज्ञात कर लिया होता है,'- तो पूर्वविज्ञात सम्बन्ध से पूर्वकाल में व्यक्ति का भान मान लो, लेकिन जातिभान के काल में पूर्वविज्ञात सम्बन्ध से व्यक्ति का भान मानने में कोई युक्ति नहीं है । एक बार सम्बन्ध का ज्ञान कर लेने पर अन्य काल में उस से व्यक्ति का भान होता रहे ऐसा मान लेने की कोई राजाज्ञा नहीं है फिर भी ऐसा मानेंगे तो हर एक काल में जाति के भान से व्यक्ति का भान मानने का अतिप्रसंग होने से, आपने जो कभी व्यक्तिनिरपेक्ष जाति यानी केवल जाति का भान मान लिया है उसका उच्छेद हो जायेगा।
★ 'व्यक्ति में रहना ऐसा जातिस्वभाव असंगत* यहि कहें कि - 'जाति का यही स्वरूप है कि व्यक्ति में रहना । अत: जाति के भान में स्वरूपभान
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