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द्वितीय: खण्ड:-का०-२
१७५ क्षणिकसमारोपस्यानुत्पत्तेः समारोपव्यवच्छेदकत्वं क्षणिकानुमानस्योच्यते । न साक्षाद्भूतसमारोपनिषेधात् (इति चेत् ?) कथमविकले समारोपे प्रबन्धेनोपजायमाने क्षणविवेकनिश्चयः येन ततोऽक्षणिकसमारोपस्य भाविनोऽनुत्पत्तिः स्यात् ? निश्चयाऽऽरोपमनसोविरोधाभ्युपगमात्; अन्यथा प्रत्यक्षपृष्ठभाविनः क्षणिकनिश्चयस्याप्युत्पत्तिप्रसंगः ।
तथा परस्यापि निश्चयात्मना प्रत्ययेन सर्वात्मनाऽर्थस्वरूपनिश्चयेऽपि समारोपप्रवृत्तौ तद्वयवच्छेदाय प्रवर्त्तमानं प्रमाणान्तरमनर्थकं न स्यात् । तन्न क्षणविवेकनिश्चयः, निश्चये वा विरोधादेव नाऽक्षणिकसमारोपः। 'दृढरूपस्याऽक्षणिकसमारोपस्यास्त्येव व्यावृत्तिः, सादृश्यनिमित्तस्तु स्खलपारोपः स्थायी'ति चेत् ? असदेतत् अवधारितविशेषस्यानवधारितविशेषलक्षणसादृश्याऽसम्भवात् कथं समारोपः तनिबन्धनोऽपि स्थाजो पूर्ववत् करते हैं वह नहीं करते ।
दूसरी बात यह है कि समारोप का प्रतिषेध तो अभाव स्वरूप है इसीलिये वह अहेतुक होता है । अभाव के साथ भावात्मक अनुमान को कोई भी सम्बन्ध नहीं होता, न वैसा (उस के साथ सम्बन्ध) उपलब्ध होता है । तब यह कैसे कह सकते हैं कि 'अनुमान समारोपप्रतिषेध का हेतु है या उस का प्रकाशक है' ? यहाँ यदि ऐसा उत्तर दिया जाय कि - "अनुमान के पूर्व में प्रवृत्त जो समारोप है वह तो स्वयं क्षणभंगुर होने से अनुमानक्षण में नष्ट हो जाता है। किन्तु जब क्षणिकत्व का अनुमान होता है तब उस के बाद अक्षणिकत्व के समारोप की उत्पत्ति में ही प्रतिरोध हो जाता है, इसी को कहते हैं कि समारोप का व्यवच्छेद, जो क्षणिकत्व के अनुमान से प्रयुक्त है न कि साक्षाद् उत्पन्न समारोप का विरोधी होने से यहाँ समारोप का व्यवच्छेद माना गया है ।" - तो यह उत्तराभास है क्योंकि जब अपने अपने हेतुओं से बेरोकटोक स्थायिपन का समारोप परिपूर्णरूप से परापूर्व से उत्पन्न होता आया है तब बीच में अनुमानादि द्वारा क्षणक्षय के निश्चय को उत्पन्न होने का अवकाश ही कहाँ है जिस से कि यह कहा जा सके कि अनुमान के बाद समारोप की उत्पत्ति का प्रतिरोध हो जाता है ?! आपने ही तो प्रमाणवार्तिक के तीसरे परिच्छेद (श्लो० ४९) में कहा है कि 'निश्चय और आरोपमन (पानी समारोप) इन दोनों के बीच बाध्यबाधकभावात्मक विरोध होता है ।' तब समारोप के रहते हुये विरोधी अनुमान कैसे उत्पन्न हो सकेगा ? फिर भी अगर उस की उत्पत्ति मान्य करना है तब तो वस्तु से स्थायित्व का प्रत्यक्ष होने के बाद क्षणिकत्व के निश्चय की उत्पत्ति भी हो जाने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि अब तो आप को विरोधी की उपेक्षा ही करना है !
★ अक्षणिकसमारोप की दुर्घटता तदवस्थ★ दूसरी बात यह है कि - आप मानते हैं कि समारोप की परम्परा चली आने पर भी बीच में अनुमान प्रवृत्त होता है और उस से समारोप का व्यवच्छेद होता है इस लिये अनुमान प्रमाण है । तब तो दूसरा वादी कहेगा - निश्चयात्मक प्रतीति से अर्थस्वरूप का संपूर्णरूप से निश्चय होने के बाद भी (यानी अक्षणिकत्व का निश्चय हो जाने पर भी) समारोप प्रवृत्त होने पर उसके व्यवच्छेद के लिये प्रवृत्त शब्दादि तीसरा प्रमाण व्यर्थ नहीं, सार्थक होगा। (बौद्ध तो प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मानते हैं ।) निष्कर्ष यह है कि बौद्ध के मत में, समारोपात्मक विरोधी मन के उत्पन्न होते हुये बीच में क्षणिकत्व के निश्चय (=अनुमान) को कोई अवकाश नहीं है। यदि निश्चय को सावकाश मानते हैं तो उसके विरोध के कारण उसके बाद अक्षणिक समारोप
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