________________
१३६
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अयोगादिति लक्षितलक्षणया प्रवृत्तिर्भवेत् । नैतदपि सम्यक्; नह्यत्र क्रमवती प्रतीतिः - पूर्व जातिराभाति पश्चात् स्वलक्षणमिति । किञ्च, जात्यापि स्वलक्षणं प्रतिनियतेन वा रूपेण लक्ष्येत, साधारणेन वा ? तत्र न तावदायः पक्षः, प्रतिनियतरूपस्य स्वलक्षणस्य प्रतिपत्तेरसंभवात्। न हि शब्दानुमानवेलायां जा. तिपरिमितं प्रतिनियतं स्वलक्षणमुद्भाति सर्वतो व्यावृत्तरूपस्याननुभवात्, अनुभवे वा प्रत्यक्षप्रतिभासाऽविशेषः स्यात् । न च प्रतिनियतरूपमन्तरेण जातिर्न सम्भवति, तत् कुतस्तया तस्य लक्षणम् ? अथापि साधारणेन रूपेण तया स्वलक्षणं लक्ष्यते 'दाहादियोग्यं वह्निमात्रमस्ति' इति । तदप्यसत्, साधारणस्यापि रूपस्यार्थक्रियाऽसम्भवात् प्रतिनियतस्यैव रूपस्य तत्र सामोपलब्धः, ततश्च तत्प्रतिपत्तावपि कयं प्रवृ. त्तिः ? पुनस्तेनापि साधारणेनाऽपरं साधारणं रूपं प्रत्येतव्यम् तेनाप्यपरमिति साधारणरूपप्रतिपत्तिपरम्परा निरवधिर्भवेत्। तथा चार्थक्रियासमर्थरूपानधिगतेत्त्यभाव एव । लक्षणा से 'भ्रमर' पद के द्वारा भ्रमररूप अर्थ का बोध होता है । [द्विरेफ शब्द सीधा भ्रमर का वाचक नहीं बनता किंतु दो रेफ वाले 'भ्रमर' पद का स्मरण कराने द्वारा भ्रमर-अर्थ का बोध कराता है ।] तो इसी तरह शब्द से पहले तो जाति का भान होता है, किन्तु व्यक्ति के बिना जाति का अवस्थान या भान शक्य न होने से शब्द से जातिभान के द्वारा स्वलक्षणरूप व्यक्ति का भी भान होता है । 'द्विरेफ' शब्द की तरह, यहाँ भी इस प्रकार लक्षितलक्षणा से स्वलक्षण का बोध एवं स्वलक्षण में प्रवृत्ति घट सकती है । लिंग से भी इस प्रकार परम्परया जातिभान द्वारा स्वलक्षण का भान शक्य है ।
जातिविरोधी :- यह बात ठीक नहीं है । कारण, शब्द से होने वाले बोध में ऐसे किसी क्रम का अनुभव नहीं होता कि पहले मुझे जाति का भान हुआ और उस के बाद तुरंत स्वलक्षण-व्यक्ति का । दूसरी चर्चास्पद बात यह है कि जाति-भान के द्वारा स्वलक्षण का बोध किसी एक प्रतिनियत (यानी असाधारण अथवा विशिष्ट) रूप से होता है या साधारणरूप से ही होता है ? पहला पक्ष विश्वस्य नहीं है, क्योंकि जातिभान के द्वारा असाधारणस्वरूपवाले स्वलक्षण का बोध संभव ही नहीं है । शाब्दबोध या अनुमिति करते समय स्वलक्षण का जाति से अनुविद्ध और फिर भी असाधारण स्वरूप से भान होने का अनुभव में नहीं आता है, क्योंकि शब्द को सुन कर सर्व सजातीय-विजातीय से व्यावृत्त ऐसे असाधारणरूप का अनुभव होता नहीं है । यदि ऐसे असाधारणरूप का अनुभव मान्य करेंगे तब तो शाब्दबोध-अनुमिति और प्रत्यक्षप्रतिभास, इनमें कुछ भी भेद नहीं रह पायेगा । उपरांत, आपने जो यह कहा कि 'असाधारणव्यक्तिस्वरूप के बिना जाति का अवस्थान शक्य नहीं' यह भी ठीक नहीं है। असाधारणरूप के बिना भी जाति का अवस्थान मानने में कोई बाध नहीं है। क्योंकि हम तो जाति को काल्पनिक मानते हैं और जाति की वास्तविकता अब तक विवादग्रस्त है] जब ऐसा है तब जाति-भान के बाद लक्षणा से स्वलक्षण के बोध की तो बात ही कहाँ ? यदि दूसरा पक्ष ले कर कहें कि जाति द्वारा साधारणरूप से स्वलक्षण का बोध होता है, जैसे ऐसा उल्लेख होता है कि 'दाहादिक्रिया कर सके ऐसा सामान्य अग्नि वहाँ है- तो यह पक्ष भी गलत है, क्योंकि सर्वसाधारण स्वरूप (यानी सामान्य) से कोई भी विशिष्ट अर्थक्रिया होने का सम्भव नहीं होता । असाधारण स्वरूप का ही दाहादि अर्थक्रिया करने का सामर्थ्य होता है। अतः साधारणरूप से स्वलक्षण का बोध होने पर भी तदर्थी की प्रवृत्ति वहाँ संभवित नहीं है। उपरांत, इस पक्ष में यह अनवस्था दोष संभव है कि- जिस साधारणरूप से स्वलक्षण का बोध किया गया है उस साधारणरूप
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org