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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
कस्मात् सास्नादिमत्स्वेवं गोत्वं यस्मात् तदात्मकम् ।
तादात्म्यमस्य कस्मात् चेत् स्वभावादिति गम्यताम् ॥ इति वचनाद् व्यक्तिस्वभावं सामान्यमभ्युपगतं तेषामपि व्यक्तिवत् तस्याऽसाधारणरूपत्वं व्यतयुदय-विनाशयोच तयोगित्वं प्रसक्तमिति न सामान्यरूपता । अथाऽसाधारणत्वमुत्पादविनाशयोगित्वं च तस्य नाभ्युपगम्यते तर्हि विरुद्धधर्माध्यासतो व्यक्तिभ्यस्तस्य भेदप्रसक्तिः । आह च-[ ]
तादात्म्यं चेद् मतं जातेर्व्यक्तिजन्मन्यजातता। नाशेऽनाशश्च केनेष्टस्तद्वत्त्वान त्वयो न किम् (१)॥ व्यक्तिजन्मान्यजाता चेदागता नाश्रयान्तरात् । प्रागासीद् न च तद्देशे सा तया संगता कथम् ॥ व्यक्तिनाशेन चेन्नष्टा गता व्यक्त्यन्तरं न च ।
तत् शून्ये न स्थिता देशे सा जातिः क्वेति कथ्यताम् ॥ (E) ऐसा भी नहीं है कि जिस जिस देश में व्यक्ति रहती है उन देशों के साथ जाति का सम्बन्ध उस व्यक्ति द्वारा ही प्रयुक्त हो जाता है।
___ जब व्यक्ति भिन्न सामान्य मानने के पक्ष में इतने बाधकों की परम्परा प्रसक्त है तब जाति में निर्बाधप्रतीतिविषयता कैसे ? और तत्प्रयुक्त अस्तित्व भी उसका कैसे सिद्ध होगा ?
*सामान्य के व्यक्तिस्वभाव पक्ष में आक्षेप★ कुछ लोगोंने श्लोकवार्त्तिकवचन के आधार पर सामान्य को व्यक्तिस्वरूप ही माना है । श्लो० वा. के वचन का अर्थ :- "गलगोदडी आदि अवयव विशिष्ट व्यक्ति में ही गोत्व होता है (अन्य में नहीं होता) ऐसा क्यों ? इस प्रश्न का यही उत्तर है कि गोत्व गोव्यक्तिआत्मक ही होता है । प्रश्न :- गोत्व गोव्यक्तिआत्मक ही क्यों है ? इस प्रश्न का यही उत्तर है :- स्वभाव ।" इस वचन के आधार पर सामान्य को व्यक्तिस्वरूप मानने वाले विद्वानों के मत में, जाति में व्यक्ति की भाँति असाधारणता और व्यक्ति के उत्पत्ति-विनाश से जाति में भी उत्पाद-विनाश प्रसक्त होगा । फलत: जाति की सामान्यरूपता का भंग हो जायेगा । यदि कहें कि हम जाति-व्यक्ति का अभेद मानेंगे लेकिन जाति में असाधारणता और उत्पाद-विनाश नहीं मानेंगे तब तो विरुद्धधर्माध्यास प्रसक्त होगा क्योंकि जाति-व्यक्ति उभयस्वरूप एक ही पदार्थ में व्यक्तिरूपता के कारण असाधारणता
और उत्पाद-विनाश भी रहेगा, एवं जातिरूपता के कारण उन का अभाव भी रहेगा । इस विरुद्धधर्माध्यास की प्रसक्ति के कारण जाति और व्यक्ति में भेद ही प्रसक्त होगा, अभेद नहीं रहेगा। कहा भी है
"यदि व्यक्ति-जाति का तादात्म्य मानेंगे तो व्यक्ति का जन्म होने पर भी जाति का अनुत्पाद और व्यक्ति का नाश होने पर भी जाति का अनाश कौन मानेगा ? उपरांत, व्यक्ति की भाँति जाति में भी अनन्वय = असाधारणता क्यों प्रसक्त न होगी ?"
"यदि व्यक्ति के साथ उस का (जाति का)जन्म नहीं ना, अन्य आश्रय से वहाँ उस का आगमन १. 'तच्चानन्वयो' इति प्रमेयक० १० १३८ द्वि० ५० १४ पाठः । तद्वत् = व्यक्तिवत् । अनन्वयः = असाधारणता इति व्याख्यातं प्रमेषक. टी० पृ० १३८ द्वि० ५० १९ - इति पूर्वमुद्रिते।
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