________________
द्वितीयः खण्डः - का० - २
बहुष्वपि शाबलेयादि
हि संसर्गिणः शाबलेयादय आधारतयाऽन्तरङ्गा अपि तं स्वरूपतो भेत्तुमशक्ताः ष्वेकस्याऽगोव्यवच्छेदलक्षणस्यापोहस्य तेष्वभ्युपगमात् - तथा बहिरंगभूतैरश्वादिभिरपोौरसो भिद्यते इत्यपि साहसम् । न हि यस्यान्तरंगोऽप्यर्थो न भेदकस्तस्य बहिरंगो भविष्यति बहिरंगत्वहानिप्रसंगात् ।
'अथान्तरंगा एवाधारास्तस्य भेदका:' । असदेतत्, अवस्तुनः सम्बन्धिभेदाद् भेदानुपपत्तेः, वस्तुन्यपि हि सम्बन्धिभेदाद् भेदो नोपलभ्यते किमुताऽवस्तुनि निःश्वभावोत्तहा हि - देवहिकमेकपि (? निःस्वभावे ? तथाहि - देवदत्तादिकमेकमपि ) वस्तु युगपत् क्रमेण वाऽनेके (? कै) रासनादिभिरभिसम्बध्यमानमनासादितभेदमेवोपलभ्यते किं पुनर्यदन्यव्यावृत्तिरूपमवस्तु, तत्त्वादेव च क्वचिदसम्बद्धं, विजातीयाच्चाव्यावृत्तम्,
४९
है। यदि कहें कि "आकाश सर्वत्र एकरूप होने पर भी घट - पटादि उपाधियों के भेद से घटाकाश- पटाकाश एैसा भेद होता है इसी तरह अपोह स्वयं एकरूप होने पर भी अगो अशाबलेय आदि अपोहनीय अर्थों के भेद से अगोअपोह- अशाबलेयअपोह ऐसा भेद होता है इसलिये उनमें पर्यायवाचिता की विपत्ति नहीं होगी" - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उपाधियों से होने वाला भेद वास्तविक नहीं, काल्पनिक औपचारिक होता है । इसलिये जब तक स्वयं भिन्नता नहीं है तब तक एकरूपता होने से परकीय संसर्ग से अपोह में भेद मानेंगे तो वह भी काल्पनिक ही होगा। तात्पर्य, स्वयं भिन्नता न होने पर परकीयसंग से वास्तविक भेद का सम्भव ही नहीं है ।
दूसरी बात यह है कि शाबलेयादि गोसामान्य के आधार रूप होने से अन्तरंग = अवान्तर तत्त्व है फिर भी आप उस अन्तरंग तत्त्वों से गो आदि का भेद मान्य नहीं करते हैं क्योंकि आप तो अनेक शाबलेयादि पिण्डों में अगोव्यवच्छेद रूप अपोह को एकरूप ही मानते हैं तो फिर जो अश्वादिरूप ( अगो-अपोह) बहिरंग पदार्थ हैं उन के भेद से भेद मानना नितान्त अंधसाहस है । अन्तरंग पदार्थ जिस का भेदक नहीं होता, बहिरंग पदार्थ उसका भेदक नहीं हो सकता, यदि उसे भेदक मानेंगे तो वह बहिरंग नहीं हो सकेगा किन्तु उस को अन्तरंग मानने की विपदा आयेगी ।
★ अन्तरंग आधार से अपोह का भेद असिद्ध ★
यदि कहें कि "बहिरंग तत्त्व यदि भेदक नहीं हो सकता तो हम अन्तरंग आधारों यानी गो आदि सामान्य के आश्रयों को ही भेदक मान लेगें ।" तो यह शक्य नहीं है । कारण, अन्तरंग संबन्धियों के भेद से कदाचित् वस्तु में भेद सिद्ध हो सकता है, अवस्तु ( अपोह) में नहीं । वास्तव में तो सम्बन्धि के भेद से सच्ची वस्तु में भी भेद उपलब्ध नहीं होता तो स्वभावशून्य अपोहरूप अवस्तु में तो भेद होने की बात ही कहाँ ? देखियेदेवदत्तनाम की एक वस्तु एकसाथ अथवा तो क्रमशः अनेक पृथग् पृथग् सम्बन्धिरूप आसन पर बैठायी जाय तब वह देवदत्तवस्तु तो एकरूप ही उपलब्ध होती है, भेद तो उसमें मिलता ही नहीं। तो फिर जो अन्यापोह रूप अवस्तु है उसमें कैसे सम्बन्धिभेदप्रयुक्त भेद मान लिया जाय ? अरे वह जब वस्तु ही नहीं है तो गोआदि किसी के भी साथ सम्बद्ध भी कैसे हो सकती है ? और उसका विजातीय भी कौन है जिस से उसकी व्यावृत्ति कही जाय ? जो अवस्तु है वह वस्तुरूप न होने से उसमें किसी विशेषता का भान शक्य ही नहीं है । ऐसी अवस्तु में सम्बन्धि (आश्रय) के भेद से किस तरह भेद स्वीकार किया जाय ?
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org