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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सतीमपि नावलम्बते, किं तर्हि ? वस्त्वंशमेवाभिधावति, तत्रैवानुरागात् । य एव चांशो वस्तुनः शाब्देन लैङ्गिकेन वा प्रत्ययेनावसीयते स एव तस्य विषयः नानवसीयमानः सन्नपि । न हि मालतीशब्दस्य गन्धादयो विद्यमानतया वाच्या व्यवस्थाप्यन्ते । न चाप्येतदु(यु)क्तम् यद् अन्यव्यावृत्ते वस्तुनि शब्दलिंगयोः प्रवृत्तिः, यतोऽन्यव्यावृत्तं वस्तु भवता मतेन स्वलक्षणमेव भवेत, न च तत् शब्दलिङ्गजायां बुद्धौ विपरिवर्त्तते इति, तस्य निर्विकल्पबुद्धिविषयत्वात्, भवदभिप्रायेण शब्दलिङ्गजबुद्धेश्च सामान्यविषयत्वात् । न चाऽसाधारणं वस्तु शाब्दलिङ्गजप्रत्ययाधिगम्यम्, तत्र विकल्पानां प्रत्यस्तमयात् । तथाहि - विकल्पो जात्यादिविशेषणसंस्पर्शेनैव प्रवर्त्तते न शुद्धवस्तूपग्रहणे, न च शब्देनागम्यमानमप्यसाधारणं वस्तु व्यावृत्त्या विशिष्टमभिधातुं शक्यम् । यतः ।
शब्देनाऽगम्यमानं च विशेष्यमिति साहसम् । तेन सामान्यमेष्टव्यं विषयो बुद्धि-शब्दयोः ॥ [श्लो. वा० अपो० श्लो. ९४]
इतश्च सामान्यं वस्तुभूतं शब्दविषयः, यतो व्यक्तीनामसाधारणवस्तुरूपाणामवाच्यत्वान्नापोहाता अनुक्तस्य निराकर्तुमशक्यत्वात्, अपोह्येत सामान्यम् तस्य वाच्यत्वात्, अपोहानां त्वभावरूपतयाऽपोह्यत्वाऽसम्भवात् तत्त्वे वा वस्तुत्वमेव स्यात् । तथाहि- यद्यपोहानामपोह्यत्वं भवेत् तदैषामभावरूपत्वं और लिंग 'गो' आदि के गोत्वादि वस्तुरूप अंश को ही स्पर्श करते हैं, क्योंकि उसी में उन का अनुराग (= संकेतसम्बन्ध) होता है । यह नियम है कि वस्तु का जो अंश शब्दजन्य या लिंगजन्य प्रतीति में भासित होता है वही उस प्रतीति का विषय होता है । दूसरे अंश वस्तु में होते हुये भी भासित न होने पर उस प्रतीति का विषय नहीं होता । जैसे - 'मालती' शब्द से मालतीपुष्प की प्रतीति होने से वही उस शब्द का वाच्य माना जाता है, सुरभिगन्धादि बहुत से उस के धर्म उस में विद्यमान होते हैं फिर भी 'मालती' शब्द से उन का भान नहीं होता है इसलिये वे 'मालती' शब्द के वाच्य नहीं माने जाते ।।
यह भी समझ लो कि अन्यव्यावृत्त वस्तु में शब्द और लिंग की प्रवृत्ति मानना आप के मत में युक्तिसंगत नहीं है । कारण, आप के मत से अन्यव्यावृत्त वस्तु क्या है ? स्वलक्षण ही है, वह तो शाब्दिक या लैङ्गिक प्रतीति का विषय ही नहीं होता, क्योंकि आप के मत में स्वलक्षण सिर्फ निर्विकल्पप्रत्यक्ष से ही ग्राह्य होता है और शब्दलिंगजन्य बुद्धि का विषय तो सिर्फ (कल्पित) सामान्य ही होता है । इसलिये असाधारण स्वलक्षण वस्तु का शब्दजन्य या लिंगजन्य प्रतीति से भान ही नहीं होता क्योंकि विकल्पमात्र की वहाँ पहुँच नहीं है । देखिये, विकल्पज्ञान तो जाति-सम्बन्ध आदि विशेषणों को स्पर्शते हुए ही वस्तु का बोध कराता है, शुद्ध वस्तु का बोध नहीं कराता । इस प्रकार जब यह असाधारण वस्तु शब्दजन्यप्रतीति का विषय ही नहीं है तो अन्यव्यावृत्तिविशिष्ट वस्तु उस प्रतीति का विषय होने की बात कहाँ ? इसलिये यह जो कुमारिलने कहा है वही आप को मानना पडेगा कि - "शब्द से जिस का बोध नहीं होता उसको विशेष्य कहना (या मानना) साहस (अविचारिकृत्य) है, इसलिये सामान्य को भी गोआदिबुद्धि और शब्द का विषय मान लेना चाहिये ।"
शब्द का विषय वस्तुभूत सामान्य है इस तथ्य की इस प्रकार भी सिद्धि होती है कि - असाधारण वस्तुरूप व्यक्ति ली जाय तो वह शब्द का वाच्य न होने से उस का अपोह (निषेध) भी शक्य नहीं है क्योंकि जब तक किसी भी प्रकार शब्द से उस व्यक्ति का उल्लेख न किया जाय तब तक उसका निषेध भी कैसे हो
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