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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् नाकारं विशेष बुद्धिषु सनिवेशयन्ति केवलं तत्रैतावत् प्रतीयते 'सन्ति केऽप्यर्थाः येष्वपूर्वादयः शब्दाः प्रयुज्यन्ते' तथा दृष्टार्थेष्वपि गवादिशब्देष्वेतत् तुल्यम्, यतस्तेभ्योऽप्येवं प्रतीतिरुपजायते 'अस्ति कोऽप्यर्थों यो गवादिशब्दाभिधेयो गोत्वादिः', यस्तु तत्राकारविशेषपरिग्रहः केषाञ्चिदुपजायते स तेषां सिद्धान्तबलात् न तु शब्दात् ।
[२-समूदायार्थवादिमतम् । अपरे "ब्राह्मणादिशब्दैस्तपो-जाति-श्रुतादिसमुदायो विना विकल्प-समुच्चयाभ्यामभिधीयते यथा वनादिशब्दैर्धवादयः" इत्याहुः । तथाहि 'वनम्' इत्युक्ते 'धवो (वा) खदिरो वा' इति न विकल्पेन प्रतीतिरुपजायते नापि 'धवश्च खदिरश्च' इति समुच्चयेन अपि तु सामस्त्येन प्रतीयन्ते धवादयः । तथा 'ब्राह्मणः' इत्युक्ते 'तपो वा जातिर्वा श्रुतं वा' 'तपश्च जातिश्च श्रुतं च' इति न प्रतिपत्तिर्भवति, अपि तु साकल्येन सम्बन्थ्यन्तरव्यवच्छिन्नास्तपःप्रभृतयः संहताः प्रतीयन्त इति । बहुष्वनियतैकसमुदायिभेदावधारणं विकल्पः, एकत्र युगपदभिसम्बध्यमानस्य नियतस्यैकस्य (स्यानेकस्य) स्वरूपभेदावधारणं समुच्चयः, तद्वयतिरेकेणात्र प्रतिपत्तिर्लोकप्रतीतैव । जिस वस्तु का कभी दर्शन नहीं हुआ वैसे अपूर्व (अदष्ट) अथवा देवतादि के वाचक शब्दों से कोई विशेष अर्थाकार बुद्धि में आरूढ नहीं होता सिर्फ 'अपूर्व' आदि शब्दों को सुन कर वहाँ इतना ही भास होता है कि ''ऐसे कुछ अर्थ हैं कि जिनके लिये अपूर्व-आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं । इस उदाहरण की तरह धेनु आदि अर्थों के लिये प्रयुक्त गौ-आदि शब्दों में भी समानता है कयोंकि यहाँ भी गौ आदिशब्दों से भी ऐसी ही प्रतीति उत्पन्न होती है कि "है कोइ ऐसा गोत्वादि अर्थ जो गौ-आदिशब्द का प्रतिपाद्य है।" हाँ यहाँ जो विशिष्ट आकार आदि का भी सह भान होता है वह केवल अपने सिद्धान्त की वासना के बल से ही होता है न कि शब्द से । मतलब यह है कि "अमुक विशिष्ट आकार वाले पिण्ड को गौ कहते हैं" ऐसा सिद्धान्त (या पूर्वशिक्षा) जो अपने मनमें रूढ हो गया होता है उसकी वासना के बल से ही विशिष्ट आकार का भान होता है न कि 'गो' शब्द से ।
★२ - समुदाय ही शब्दार्थ है* अन्य पंडितों का कहना है कि – 'ब्राह्मण' आदि शब्दों से, न तो विकल्प से या न तो समुच्चयरूप से किन्तु समग्रतारूप से तप, जाति, श्रुत आदि गुणों के समुदाय का निरूपण होता है । उदा० 'वन' आदि शब्दों से धवादि का निरूपण होता है । जैसे देखिये - 'वन' शब्द बोलने पर, 'धव अथवा खदिर का वृक्ष' इस प्रकार कोई वैकल्पिक प्रतीति नहीं होती । एवं 'धव और खदिर' ऐसे समुच्चय की भी प्रतीति नहीं होती (विकल्प और समुच्चय की व्याख्या अभी आगे लिखते हैं) किन्तु समग्रतारूप से धवादि के समुदाय की प्रतीति होती है । इसी तरह ‘ब्राह्मण' शब्द बोलने पर 'तप अथवा जाति या श्रुत' ऐसी वैकल्पिक प्रतीति नहीं होती । एवं 'तप और जाति और श्रुत' ऐसे समुच्चय की भी प्रतीति नहीं होती । किंतु संपूर्णरूप से युद्धप्रियता आदि अन्य क्षत्रियादिसम्बन्धि गुणों से विलक्षण ऐसे तप आदि समुदित हो कर समग्रता रूप से भासित होते हैं ।
विकल्प का अर्थ यह है कि - अनेक पदार्थों के समुदाय में से अनियतरूप से - यानी इच्छानुसार समुदायान्तर्गत विशेषपदार्थ का निर्देश करना । जैसे कि धव को देखो या खदिर के वृक्ष को देखो।
समुच्चय का तात्पर्य यह है कि - किसी एक क्रिया के साथ एक साथ अन्वित होने वाले नियत अनेक
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